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________________ (१५) इस प्रकार ६ आरों के समाप्त होने पर अवसर्पिणी पूर्ण होती है और उसके बाद उत्सर्पिणी का प्रारम्भ होता है । उसमें यह काल - क्रम उलटे अनुक्रम से ६, ५, ४, ३, २, और १ होता है अर्थात् दुषम-दुषम, दुषम, दुषम- सुखम, सुखम सुखम- सुखम ! उनका वर्णन भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए 9 जैन-शास्त्रों में काल-गणना बड़े विस्तृत रूप में मिलती है । समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक के काल संख्या का कोष्टक १ निर्विभाज्य काल समय २ १ - जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सटीक पत्र ११८ - १७१ में इन आरों का वर्णन आता है । (२) भगवतीसूत्र, शतक ६, उद्देश ७, पत्र २७४ (ब) समए आवलिआ आए पारगू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरते पक्खे मासे उऊ अयणे र्सवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससहस्स पुव्वंगे पुव्वे तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अवगे हुहुअंगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे एालिएगंगे गलिगे अत्थनिऊरंगे अत्थनिऊरे अउअंगे अउए नउअंगे नउए पउअंगे पउए चूलिअंगे चूलिआ सीसपहेलिअंगे सीस पहेलिया पलिओवमे सागरोवमे ओसप्पिणी उस्सप्पिणी पोग्गलपरिअट्टे अतीतद्धा अरणागतद्धा सव्वद्धा.. ( मूल सूत्र ११४ ) - अनुयोगद्वारसूत्र सटीक पृष्ठ ६६ (२) अद्धारूप: समयोऽद्धा समयः वक्ष्यमारणपट्ट साटिकादिपाटनदृष्टान्तसिद्धः सर्व सूक्ष्मः पूर्वापरकोटिविप्रमुक्तो वर्त्तमान एकः कालांश:... । ( सूत्र ε७) — अनुयोगद्वारसूत्र सटीक पृष्ठ ७४ तु जारण समयं तु । यः कालः व्याचष्टे – 'अविभज्यः' विभक्तुमभूयोऽपि विभागः कर्तुं न शक्यते स कालः परमनिरुद्धः, तमित्थम्भूतं परमनिरुद्धं कालविशेषं समयं जानीहि स च समयो दुरधिगमः तं हि भगवन्तः केवलिनोऽपि साक्षात् केवलज्ञानेन विदन्ति । - कालो परमनिरुद्धो अविभज्जो तं ‘परम निरुद्धः' परम निकृष्टः एतदेव शक्यः किमुक्तं भवति ? यस्य 7 - ज्योतिष्करण्डक पृष्ट – ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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