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दुषम-दुषम पाँचवें दुषम-आरा की समाप्ति के बाद दुषम-दुषम नाम का छठा आरा प्रारम्भ होता है। इस काल में समस्त वस्तुओं का क्षय होता है । यह काल अति कठिन, अत्यन्त भयंकर, असहय और प्राणहारी होता है। बारबार दिशाएँ धूम्रमय होती हैं, चारों तरफ धूल से अंधकारमय हो जाता है। इस काल में सूर्य-चन्द्रमा का तेज असह्य और अहितकारी हो जाता है। चन्द्रमा अति शीतल हो जाता है और सूर्य में अत्यन्त उष्णता आ जाती हैं। ये सूर्य और चन्द्रमा जो जगत का हित करने वाले हैं, वे दुख देने वाले हो जाते हैं । इस काल में बरसात का पानी नमकीन होता है । इसके अतिरिक्त खट्टा रस वाला पानी, अग्नि की तरह दाह करने वाला, विषमय रस वाला पानी बरसता है। जैसे वज्र पहाड़ भेदने में समर्थ होता है, उस प्रकार ऐसी वर्षा होती है कि, उसका जल पर्वत को भेद देता है। बारम्बार बिजली पड़ती है
और विविध प्रकार के रोग, वेदना और मृत्यु देनेवाली बरसात पड़ती है। 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति' में इन मेघों के नाम निम्नलिखित दिये है :
अरसमेघ, विरसमेघ, क्षारमेघ, क्षतिमेघ, विषमेघ __कालसप्तति-प्रकरण में वर्णन मिलता है कि क्षार, अग्नि, विष, अम्ल विद्युत् इन पाँच प्रकार के मेघ सात-सात दिन बरसते है।
छठे आरे के प्रारंभ में पृथ्वी अंगार के समान तप्त हो जाती है । कोई आदमी उसे स्पर्श नहीं कर सकता। इस काल में पुरुष कुरूप; निर्लज्ज; कपट, वैर तथा द्रोह करने में तत्पर; मर्यादाहीन, अकार्यकारी, अन्यायी-क्लेशउत्पात आदि में रुचि रखने वाले विनय-गुण से हीन, तथा दुर्बल होते हैं। मनुष्य की उत्कृष्ट आयु पुरुष की २० वर्ष और स्त्री की १६ वर्ष की होती है तथा ऊँचाई २ हाथ की होती है।
भूमि अति तप्त और असह्य हो जाती है । वैताढ्य पर्वत के उत्तर ओर गंगा-सिंधु के दोनों तटों पर ६-६ बिलें (गुफाएँ) और दक्षिण ओर गंगासिंधु के दोनों तटों पर ६-६ बिलें होती हैं । बचे-खुचे मनुष्य, पशु-पक्षी आदि ताप से बचने के लिए इन ७२ बिलों में शरण लेते हैं।'
(१) काललोकप्रकाश पृष्ठ ६०६
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