________________
(३३५) अक्रियावादी–अक्रियावादी की मान्यता यह है कि क्रिया पुण्यादिरूप नहीं है। क्योंकि क्रिया स्थिर पदार्थ को लगती है। परन्तु, स्थिर पदार्थ तो जगत में है ही नहीं; क्योंकि उत्पत्यनंतर ही पदार्थ का विनाश हो जाता है। ऐसा जो कहते हैं, सो अक्रियावादी।
यह जो अक्रियावादी हैं, वे आत्मा को नहीं मानते।
उनके ८४ मत इस प्रकार होते हैं :-१ जीव, २ अजीव, ३ आश्रव, ४ संवर, ५ निर्जरा, ६ बंध, ७ मोक्ष यह सात पदार्थ के 'स्व' और 'पर' और उनके, १ काल, २ ईश्वर, ३ आत्मा, ४ नियति, ५ स्वभाव, ६ यदृच्छा इन ६ भेद करने से ८४ सिद्ध होगा। यहाँ नित्यानित्य दो भेद इसलिए नहीं माने जाते कि जब आत्मा आदि पदार्थ ही वे नहीं मानते, तो नित्य-अनित्य का भेद ही कहाँ ?' १-इह जीवाइपयाई पुन्नं पावं विणा ठविज्जंति ।
तेसिमहोभायम्मि ठविज्जए सपरसद्ददुर्ग ॥१४॥ तस्सवि अहो लिहिज्जइ १ काल १ जहिच्छा य २ पयदुगसमेयं । नियइ १ स्सहाव २ ईसर ३ अप्पत्ति ४ इमं पय चउक्कं ॥६५॥
(पृष्ठ ३३४ की पादटिप्परिण का शेषांश ) जीवो इह अत्थि सओ निच्चो कालाउ इय पढमभंगो। बीओ य अत्थि जीवो सओ अनिच्चो य कालाओ।।६१॥ एवं परोऽवि हु दोन्नि भंगया पुव्वदुगजुया चउरो। लद्धा कालेणेवं सहावपमुहावि पावंति ॥१२॥ पंचहिवि चउक्केहिं पत्ता जीवेण वीसई भंगा। एवमजीवाईहिवि य किंरियावाई असिइसयं ॥३॥
-प्रवचन सारोद्धार, उत्तरार्द्ध, पत्र ३४४-१। इसी प्रकार की व्याख्या आचारांगसूत्र सटीक पत्र १६-२, १७-१; सूत्रकृतांग सटीक, प्रथम भाग, पत्र २१२-२; स्थानांग सूत्र सटीक भाग १, पत्र २६८-१ पर भी दी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org