SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३३४) --अर्थात् १८० मत क्रियावादी के, ८४ मत अक्रियावादी के, ६७ मत अज्ञानवादी के और ३२ मत विनयवादी के हैं। इन सब का योग ३६३ होता है। क्रियावादी-क्रियावादी ऐसा मानते हैं कि, कर्ता के बिना पुण्यबंधादि लक्षण क्रिया नहीं होती। इसलिए क्रिया आत्मा के साथ समवाय-सम्बन्धवाली है। यह जो क्रियावादी है, आत्मादिक नव पदार्थों को एकान्त अस्तिस्वरूप से मानते हैं। उन क्रियावादियों के १८० भेद इस रूप में होते हैं । १ जीव, २ अजीव, ३ आश्रव, ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा, ७ पुण्य, ८ अपुण्य, ९ मोक्ष ये ६ पदार्थ हैं। इनमें हर एक के स्वतः, परतः, नित्य, अनित्य ; काल, ईश्वर, आत्मा, नियति, स्वभाव इतने भेद करने से यह १८० होता है। यह बात नीचे दिये चक्र से स्पष्ट हो जायेगी। जीव परतः नित्य अनित्य नित्य अनित्य १ काल १ काल १ काल १ काल २ ईश्वर २ ईश्वर २ ईश्वर २ ईश्वर ३ आत्मा ३ आत्मा ३ आत्मा ३ आत्मा ४ नियति ४ नियति ४ नियति ४ नियति ५ स्वभाव ५ स्वभाव ५ स्वभाव ५ स्वभाव इस प्रकार जैसे अकेले जीव के २० भेद हुए, उसी प्रकार अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, अपुण्य और मोक्ष सबके भेद-स्थापन करने से संख्या १८० हो जायेगी।' स्वतः १-जीवाइनवपयाणं अहो ठविज्जति सयपरय सद्दा । तेसिपि अहो निच्चानिच्चा सद्दा ठविज्जति ॥८६॥ काल १ स्सहाव २ नियई ३ ईसर ४ अप्पत्ति ५ पंचविपयाई। निच्चानिच्चारणमहो अणुक्कमेणं ठविज्जति ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy