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(३१५) क्यों नहीं ? स्वभाव के होने में तो हेतु लागू होता है, वह कर्म में भी लागू . होता है । तो फिर कर्म और स्वभाव को समानार्थी मानें तो क्या दोष है ?
और, प्रतिनियत आकारवाला होने से 'घट' की तरह वह कर्ता नहीं होगा। उस स्वभाव को मूर्त कहेंगे अथवा अमूर्त ? यदि मूर्त कहें तो नाम मात्र से ही होगा । यदि अमूर्त कहें तो वह ठीक उसी प्रकार कर्ता नहीं होगा, जिस तरह देहादि का कर्ता आकाश नहीं माना जाता। लेकिन, कार्य होने से उसको मूर्त ही मानना पड़ेगा और यदि मूर्त मानें तो भेद नाममात्र से रह जायेगा।
"और यदि स्वभाव निष्कारणता है, तो कारण की अपेक्षा नहीं होने से खरशृंग भी हो जाये।
"यदि उसे वस्तु-धर्म रूप में मानें तो वह कारण-कार्य से अनुमेय पुण्येतर नाम का कर्म और जीव का परिणाम-रूप माना जायेगा।....कारण होने से और देहादि के कार्य होने से, तुम भी अग्निभूति की तरह मेरे द्वारा बतलाये गये कर्म को मानो और देहादि तथा क्रियाओं की शुभाशुभता से स्वभावतः भिन्न जातीय पुण्य-पाप को भी मानो।
"कार्य होने से अवश्य सुख-दुःख का भोग्य मानना चाहिए । घट के परमाणु की तरह इनका (सुख-दुःख का) कारण पुण्य और पाप ही हैं ।
"सुख-दुःख में पुण्य-पाप रूप कर्म कारण हैं। वह कर्म सुख-दुःखात्मक कार्य के सदृश्य ही होगा। ऐसी दशा में सुख और दुःख को आत्मपरिणामी होने से यदि अरूप मानें तो पुण्य पापात्मक कर्म भी अरूप होगा। यदि उसे रूपवाला मानें तो वह अनुरूप ही नहीं होगा।
"क्योंकि कारण न तो सर्वथा अनुरूप और न सर्वथा भिन्न ही होता है। यदि तुम कारण को सर्वथा अनुरूप और भिन्न भी मानो तो उसमें कार्यत्व, कारणत्व अथवा वस्तुत्व ही कैसे रहेगा ?
“यदि सब वस्तुएं तुल्य अथवा अतुल्य हों, तो कारण में कार्यानुरूपता
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