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(३१४) "तुमने पाँचों कारण सुन लिये। तुम पाँचों के संशयरूप दोला पर आरूढ़ हो । और, इस प्रकार पाप-पुण्य के सम्बन्ध में शंकाशील हौ ।
"पुण्य के उत्कर्ष से तरतम योग वाली शुभता होती है और उसके अपकर्ष से (शुभता की) हानि होती है। पथ्याहार की तरह, जब पुण्य का पूर्ण क्षय हो जाता है, तो मोक्ष मिलता है। (जिस तरह पथ्याहार की वृद्धि में आरोग्य की वृद्धि होती है, उसी तरह पुण्य की वृद्धि से सुख की वृद्धि होती है। जिस तरह पथ्याहार के क्रमशः त्याग में सरोगता होती है, उसी तरह पुण्य के अपचय में दुःख की उत्पत्ति होती है। और, जिस तरह सर्वथा पथ्याहार छोड़ने से मृत्यु होती है, उसी तरह सर्वथा कर्म-क्षय होने पर जीव का मोक्ष होता है-अर्थात् वह मर जाता है।) ___"जैसे क्रमशः अपथ्य बढ़ाने से रोग की वृद्धि होती है, उसी तरह पाप की वृद्धि में दुःख बढ़ता है, और अत्यन्त पाप के बढ़ जाने पर नारकदुःख होता है । जिस तरह अपथ्य के त्याग से क्रमशः आरोग्य-वृद्धि होती है, उसी तरह क्रमशः पाप की कमी से सुख की वृद्धि होती है। एकदम कमी होने पर देवलोक का सौख्य होता है। और, जिस तरह अपथ्याहार के सर्वथा परित्याग से परम आरोग्य उत्पन्न होता है, उसी तरह सर्व पापक्षय होने से मोक्ष होता है।
"पाप और पुण्य ये दोनों स्वतन्त्र नहीं हैं-दोनों एक दूसरे से संयुक्त हैं। और, उनके अपकर्ष अथवा उत्कर्ष से वे पाप-पुण्य के नाम से कहे जाते हैं।
"इसी प्रकार कुछ ऐसा मानेंगे कि वे एक दूसरे से भिन्न हैं । और, इस जगत की उत्पत्ति स्वभाव से होती है, ( इसका उत्तर यह है कि) जगत की उत्पत्ति स्वभाव से होती है, यह मानने योग्य नहीं है । वह स्वभाव कोई वस्तुरूप है, निष्कारणता है या वस्तुधर्म है ? यदि ( उसे वस्तुरूप माने) तो आकाश-कुसुम के समान अनुपलब्ध होने से वह है ही नहीं।
"यदि वह अत्यन्त अनुपलब्ध है, तो स्वभाव क्यों कहा जाता है ? 'कर्म'
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