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(३०६ )
"यदि बहुत पाप का फल भोगने वाले को तुम नारकीय मानते हो, तो बहुत पुण्य के फल का भोग करने वालों को तुम्हें देव मानना चाहिए ।
"वे देवता दिव्य प्रेम में लगे हुए रहते हैं, विषय में फँसे रहते हैं, उनके कर्तव्य असमास रहते हैं और मनुष्यों के कार्य उनके आधीन नहीं होते । अतः वे मनुष्यों के अशुभ भव में नहीं आते ।
" जिन के जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण के समय कुछ देवों को कर्तव्य समझ कर जगत में आना पड़ता है । कुछ भक्तिवश आते हैं । हे सौम्य ! कुछ संशयविच्छेद की दृष्टि से आते हैं, कुछ पुर्वानुराग से आते हैं, कुछ समयनिबन्ध ( प्रतिबोधादि निमित्त ) से आते हैं, कुछ तपोगुण से आकृष्ट होकर आते हैं, कुछ नर को पीड़ा पहुँचाने आते हैं, कुछ अनुग्रह करने आते हैं और कुछ देव कंदर्पं ( काम ) आदि के साथ ( साधुओं की परीक्षा के लिए ) आते हैं ।
"हे सौम्य देवताओं की स्थिति निम्नलिखित स्थितियों से सिद्ध हो सकती है : --
( १ ) जातिस्मरण ज्ञान वाले पुरुष के कथन से ( २ ) तपः प्रभृति गुणों से युक्त व्यक्ति के देवताओं के प्रत्यक्ष दर्शन से ( ३ ) विद्यामंत्र की सिद्धि से ( ४ ) ग्रहविकार से (५) उत्कृष्ट पुण्य का फल मिलने से (६) अभिधान सिद्धि से ( 'देव' नाम पड़ने से ) (७) सभी आगमों में बताये जाने से ।
अत: 'देव हैं, ऐसी श्रद्धा तुम्हें करनी चाहिए ।
" जैसे 'घट' शब्द का कुछ अर्थ होता है, इसी प्रकार 'देव' शब्द भी सार्थक होने से किसी-न-किसी अर्थ को अवश्य बतायेगा । उसका जो अर्थ है, वह देव है । कुछ लोग कहेंगे कि, गुए। ऋद्धि आदि से युक्त मनुष्य ही देव है, अदृश्य देव की कल्पना ही क्यों की जाये ? पर, ऐसा नहीं हो सकता । मुख्य वस्तु के कहीं सिद्ध होने पर ही उसका उपचार होता है । मुख्य सिंह के कहीं होने पर ही, वटु में उसका उपचार किया जाता है ।
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