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________________ (३०६) अर्थ होता है। इससे सिद्ध और उसके स्थान का भेद नहीं पर अभेद विवक्षित है। अर्थात् सिद्ध और सिद्ध के स्थान में कोई भेद नहीं हैं। वहाँ से उसका पतन नहीं होता। __ "यदि उस का अर्थ 'स्थान' करें भी, तो भी सिद्ध का पतन नहीं होगा; क्योंकि उसका स्थान आकाश ही होगा। वह तो नित्य है। उसका विनाश नहीं होता। अतः, मुक्त का पतन नहीं होगा। पतनादि क्रिया का कारण कर्म है । मुक्त को तो कर्म का अभाव है, फिर उसकी पतन-क्रिया कैसे होगी? ___"यदि नित्यस्थान से पतन स्वीकार कर लें, तो व्योमादि का भी पतन सिद्ध होगा और यदि उसे उस रूप में न माने तो 'स्थान से पात' यह स्ववचनविरुद्ध होगा। ___"संसार से ही सभी मुक्तात्मा सिद्ध होते हैं, अतः सभी सिद्धों में कोई पहला सिद्ध माना जायेगा ? जिस तरह काल के अनादि होने से प्रथम शरीर नहीं जाना जा सकता, उसी तरह काल के अनादि होने से पहला सिद्ध भी नहीं जाना जा सकता। "सिद्धक्षेत्र के परिमित होने पर उसमें अनंत सिद्ध कैसे रहेंगे ? इसका उत्तर यह है कि वे अमूर्त होते हैं और अपने एक ही आत्मा में ज्ञानादि अनंत गुणों की तरह अपूर्त होने से. परिचित देश में भी अनन्त सिद्धों का अवस्थान माना जा सकता है। __ "तथ्य यह है कि तुम्हें वेदवाक्य ' न ह वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोर पद्धति' का सही अर्थ नहीं ज्ञात है। इसलिए बंध और मोक्ष के संबंध में तुम्हें शंका हो गयी है। वह तुम्हारी शंका ठीक नहीं है । सशरीरता ही बंध है और अशरीरता ही मोक्ष है, यह दात प्रकठ है । इस प्रकार शंका-निवारण हो जाने पर मंडिक ने अपने ४५० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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