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________________ (२६२) है, वह बादल आदि से अन्य होने से और मूर्त जाति होने से, यह शरीर तब तक जीवित है, जब तक शस्त्र से वह हत नहीं होती । और, जब शस्त्र से से हत होती है तो वह निर्जीव हो जाती है। ___ "हे सौम्य ! बहुत-से जीव मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। नये जीव का उत्पाद कोई नहीं चाहता। यह लोक परिमित है। अतः, इस लोक को आधार करनेवाले थोड़े ही स्थूल जीव हो सकते हैं। अतः, जिनके मत से पौदे आदि एकेन्द्रिय सचेतन नहीं हैं, उनके मत में सम्पूर्ण जगत का नाश प्राप्त हो जाता है । लेकिन, वह किसी को इष्ट नहीं है । अतः, भूत को आधार बनाने वाले अनंत जीव सिद्ध होते हैं । "(विरोधी पूछ सकता है) 'जीवधन' संसार को स्वीकार कर लेने से अहिंसा का अभाव हो जायेगा; क्योंकि उस स्थिति में संयमी से भी अहिंसाव्रत का पालन नहीं हो सकेगा। (इसका उत्तर यह है कि) ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा पहले कहा जा चुका है कि, शस्त्र के का आघात से ही जीव निर्जीव होता है। अतः केवल यह मान लेने से ही कि 'संसार जीवघन है', हिंसा सम्भव नहीं होती। __"जो घातक है, वह सर्वथा हिंस्र नहीं है और जो घातक नहीं है, वह सर्वथा अहिंस्र नहीं है । जीव थोड़े हों तो हिंसा न हो और अधिक हों तो हिंसा हो, ऐसी बात नहीं है । क्योंकि, बिना हनन किये ही, अपने दुष्टत्व के कारण आदमी शिकारी के समान हिंस्र हो जाता है और दूसरों को पीड़ा देने पर भी शुद्ध होने से वैद्य हिंस्र नहीं है। ____ "पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त ज्ञानी साधु अहिंसक होता है और जो इसके विपरीत है, वह अहिंसक नहीं होगा। वह संयमी जीव का आघात करे या न करे; लेकिन वह हिंसक नहीं कहलाता; क्योंकि उसका आधार तो आत्मा के अध्यवसाय के ऊपर है। "जिसका फल अशुभ हो, वह हिंसा है। वाह्य-निमित्त हिंसा अथवा अहिंसा में कारण नहीं है; क्योंकि वह व्यभिचरित है । कोई उसकी अपेक्षा करता है, कोई उसकी अपेक्षा नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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