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(२६० ) "स्फटिक आदि का परभाग भी दिखायी देता है । अतः, वे बिना संदेह हैं । और, यदि स्फटिक आदि न माने जायें, पर भाग के अदर्शन से सभी भागों के अनास्तित्व की तुम्हारी बात असिद्ध होगी । यदि ऐसा कहें कि सर्वादर्श से ही स्फटिक आदि पदार्थ भी नहीं हैं, तो 'पर भाग के अदर्शन से पदार्थ का अस्तित्व नहीं माना जाता है' वाली तुम्हारी प्रतिज्ञा गलत होगी और परस्परविरोध होगा ।
" अप्रत्यक्ष होने से यदि पर भाग और नहीं है और उनके न होने पर यदि निकट का भाग भी न माना जायेगा, इसलिए सर्वशून्यता सिद्ध होती है', तुम्हारा यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि, 'अप्रत्यक्ष' कहने से इन्द्रिय की सत्ता सिद्ध हो जाती है । और, यदि इन्द्रिय की सत्ता सिद्ध हो जाती है, और इन्द्रिय की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं, तो सर्वशून्यता की हानि होती है और अप्रत्यक्षत्व की भी हानि होती है ।
"अप्रत्यक्ष होने पर भी कुछ चीजों का अस्तित्व होता है । उदाहरण के लिए, जैसे तुम्हारा संशयादि विज्ञान, दूसरों के लिए अप्रत्यक्ष होने पर भी, है । इसी प्रकार मध्यभाग भी अप्रत्यक्ष होने पर भी सिद्ध माना जायेगा । यदि शून्यता ही नहीं है, तो वह किसकी मानी जायेगी ? और, वह किसे उपलब्ध होगी ?
“भूमि, जल, अनल आदि वस्तुओं के सम्बन्ध में तुम्हारी शंका उचित नहीं है; क्योंकि वे प्रत्यक्ष हैं । वायु और आकाश के सम्बन्ध में तुम्हारी शंका उचित नहीं है; क्योंकि वे अनुमान से सिद्ध हैं ।
"अदृश्य शक्ति से उत्पादित स्पर्शादि गुरणों का कोई-न-कोई गुरणी अवश्य माना जाता है जैसे 'रूप' का 'घट' । इसी प्रकार स्पर्श आदि का जो द्रव्य होगा, वह पवन ही है ।
" जैसे जल का भाजन घट है, वैसे ही पृथ्वी आदि पदार्थों के भी भाजन है । हे व्यक्त ! जो इन भूतों का भाजन है, वह भाजन स्पष्ट रूप से आकाश है ।
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