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नहीं हो सकती है, उसी प्रकार भावों की सिद्धि भी स्वतः परतः, उभयतः और अन्यतः नहीं हो सकती है; किन्तु अपेक्षा से होती है । ' अस्तित्व' और 'घटत्व' एक है अथवा अनेक है । यदि एक मानते हैं तो, सर्वेकता - दोष के कारण सब विषय या तो शून्य हो जाएँगे या व्यवहार के विषय न रह जाएँगे ।
" जो 'उत्पन्न हो चुका' (जात) है, उसे ऐसा नहीं कह सकते कि वह ' उत्पन्न होता' ( जायते ) है और जो 'अजात' हो उसके लिए भी 'जायते' का व्यवहार नहीं कर सकते; क्योकि यदि इसे स्वीकार किया जाये तो खरविषारण की भी उत्पत्ति हो जायेगी । जो 'जात' भी हो, और 'अजात' भी हो, उसके लिए भी 'जायते' का व्यवहार नहीं होगा; क्योंकि उसमें उक्त प्रकार के दोनों दोष आते हैं । इसलिए शून्यता सिद्ध हुई ।
"किसी वस्तु का निर्माण तब होता है, जब उपादान और निमित्त सब एक स्थान पर एकत्र हो जाते हैं । जब वे पृथक-पृथक कार्यरत रहते हैं, तो क्रिया कभी नहीं होती ।
"किसी वस्तु का पर भाग तो दर्शनगत होता नहीं और उसका सामने का भाग जो दिखलायी पड़ता है, वह अति सूक्ष्म होता है । अतः इन दोनों के अदर्शनीय होने से सब भाग की अनुपलब्धि हो जाती है । दोनों की अनुपलब्धि होने से सभी की अनुपलब्धि मानी जाती है । और, उससे सर्वशून्य हो जाता है ।
" हे व्यक्त ! भूतों की स्थिति के सम्बन्ध में शंका मत करो । असत् वस्तु में तुम्हारा संशय उचित नहीं है । जो वस्तु होती ही नहीं, उसके सम्बंध में आकाश- कुसुम अथवा खरशृंग के समान शंका सम्भव नहीं है और जो वस्तु विद्यमान होती है, उसी के सम्बंध में शंका होती है - जैसे कि पेड़ का ठूंठा अथवा पुरुष !
"ऐसा कोई विशेष कारण नहीं है, जिससे सर्वशून्यता - काल में स्थाणु और पुरुष के संबंध में तो शंका हो; पर आकाशकुसुम के सम्बन्ध में नहीं । अथवा इसके विपरीत शंका क्यों नहीं होती ?
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