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________________ (२६७) संसारी जीव, कर्ता, भोक्ता, मन्ता (मनन करने वाला) नहीं हो सकता। जो एक होता है, उसमें कर्तृत्व आदि नहीं होते । ___ "एक मानने पर आत्मा (जीव) सुखी नहीं हो सकता है; क्योंकि एक देश में निरोग रहने पर भी अनेक तरह के शारीर, मानस, व्याधि-परम्पराओं के कारण दुःख की आशंका रहेगी। बहुतर बद्धत्व (बंधन) के होने से देशमुक्त की तरह वह आत्मा मुक्त भी नहीं हो सकता है । ___ "शरीर में ही आत्मा के गुणों की उपलब्धि होने से, जीव घट की तरह शरीर मात्र में ही रहनेवाला है । अथवा जो जहाँ पर प्रमाणों से उपलब्ध नहीं होता है, वहाँ उसका अभाव ही उसी तरह माना जाता है, जैसे घट में पट की। "अतः आत्मा में, अनेकत्व और असर्वगतत्व के होने पर ही कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंध, मोक्ष, सुख, दुःख और संसरण (जन्म-मरण) ये सब उत्पन्न हो सकते हैं। _“गौतम ! तुम 'विज्ञानघन एवैतेभ्यः' आदि वेदवाक्यों का सही अर्थ नहीं जानते हो । तुम मानते हो कि मद्य के कारण धातकी आदि में मदभाव की तरह इस पृथ्वी आदि भूत-समुदाय से उत्पन्न विज्ञान मात्र ही जीव है। वह पीछे फिर उन्हीं भूतों में लय को प्राप्त होता है। इसलिए परभव में वही पूर्वभव वाली संज्ञा नहीं होती है । अतएव जीव इस लोक से परलोक वहीं जाता है। . "हे गौतम ! उक्त वेदवाक्य का पूर्वोक्त अर्थ मान करके 'जीव नहीं है', ऐसा तुम मानते हो। पर, 'न ह वै सशरीरस्य' आदि अन्य वेद-वाक्यों में जीव बतलाया गया है । और, 'अग्निहोत्रं जुहुयात स्वर्गकामः' इत्यादि वेदवचन से अग्नि-हवनादि क्रिया का पारलौकिक फल सुना जाता है। जब आत्मा अन्य भव में नहीं जाने वाला है, तब यह बात संगत नहीं हो सकती है । इन वाक्यों को देखकर नहीं, तुम्हें जीव के सम्बन्ध में संशय होता है । तुम संशय मत करो क्योंकि 'विज्ञानधन एवैतेभ्यः' वेदवाक्य का वह अर्थ नहीं है, जो तुम जानते हो । जो मैं अभी कहने वाला हूँ, उस वास्तविक अर्थ को तुम सुनो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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