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(२३६) भगा दिया। परिघरत्न को आकाश में घुमाते हुए, असंख्य द्वीपों और समुद्रों में होकर, जहाँ सौधर्मावतंक नामक विमान है, जहाँ सुधर्मा सभा है, वहाँ आकर उसने एक पैर पद्मवर-वेदिका पर रखा और दूसरा पाँव सुधर्मा-सभा में रखा और परिघरत्न से बड़े-बड़े हुंकारपूर्वक उसने इन्द्रकील को तीन बार ठोंका । उसके बाद वह चमर इस प्रकार बोला -'देवेन्द्र देवराज शक कहाँ है ? वे चौरासी हजार सामानिकदेव कहाँ हैं ? वे करोड़ों अप्सराएं कहाँ है ? उन सब को आज नष्ट करता हूँ। तुम सब मेरे आधीन हो जाओ।" इसी प्रकार के कितने ही अशुभ वचन चमरेन्द्र ने कहे । चमरेन्द्र की बात सुनकर देवेन्द्र देवराज को क्रोध हुआ। क्रोध से देवराज के माथे में तीन रेखायें पड़ गयीं और उन्होंने चमरेन्द्र से इस प्रकार कहा-अरे चौदस के दिन जन्मा हीनपुण्य असुरेन्द्र असुरराज चमर तू आज ही मर जायेगा।' ऐसा कह कर वहीं उत्तम सिंहासन पर बैठे-बैठे उसने वज्र ग्रहण किया और उसे चमरेन्द्र पर छोड़ा। हजारों उल्काओं को छोड़ता हुआ, अग्नि से भी तेजस्वी, वह वज्र चमरेन्द्र की ओर बढ़ा। उसे देख कर असुरराज चमरेन्द्र ने सोचा कि, कहीं ऐसा ही अस्त्र मेरे पास भी होता तो कितना अच्छा होता। पर, वज्र तो आ ही रहा था। अतः वह पग को ऊँचा करके शिर को नीचा करके उत्कृष्ट गति से असंख्य द्वीपों और समुद्रों के बीच में होता हुआ, जिस ओर जम्बूद्वीप था, जिस ओर अशोक का वृक्ष था, जिस ओर मैं (महावीर स्वामी) था, वहाँ आया और रुंधे गले से बोला-"आप ही मेरे शरण हो।" ऐसा कहता हुआ वह दोनों पावों के बीच में गिर गया।
उस समय देवराज शकेंद्र को यह विचार हुआ कि, असुरेन्द्र केवल अपने बल से सौधर्मकल्प तक नहीं आ सकता । ऐसा विचार करके शक ने अवधिज्ञान से देखा और मुझे (महावीर स्वामी ) देख लिया। मुझे देख कर वह अरे-अरे करता हुआ दिव्यगति देवगति से वज्र पकड़ने के लिए दौड़ा। असंख्य द्वीपों और समुद्रों को पार करता, शक्र उस स्थल पर आया, जहाँ मैं था और मेरे से चार अंगुल की दूरी पर स्थित वज्र को पकड़ लिया। शक्र ने वज्र को पकड़ कर मेरी तीन बार परिक्रमा की। और पूरी कथा कह कर
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