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________________ (२३४) चाहनेवाला,' बुरे लक्षणोंवाला लज्जा और शोभा-रहित (अपूर्ण) चतुर्दशी को जन्म लेने वाला, यह हीन-पुण्य कौन है ? मेरे पास सब प्रकार की दिव्य देव-ऋद्धि प्राप्त होने पर भी, यह कौन है, जो मेरे ऊपर, मेरे सामने दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा है।" ऐसा विचार करके चमरेन्द्र ने सामानिक सभा में उत्पन्न देवों को बुलाकर कहा'हे देवों के प्रिय, यह मृत्यु का इच्छुक कौन है, जो इस प्रकार भोगों को भोग रहा है।" असुरेन्द्र चमर के इस प्रश्न को सुनकर उस सामानिक सभा में उत्पन्न हुए देवों को अत्यन्त हर्ष और तोष हुआ। वे दोनों हाथ जोड़ कर, दशों नख मिलाकर, चमरेन्द्र का जयजयकार करने लगे । फिर वे बोले—'हे देवताओं के प्रिय, ! यह देवराज शक भोगों को भोगता विचर रहा है ।" उस सामानिक-सभा में उत्पन्न देवों के मुख से इस प्रकार सुनकर चमरेन्द्र बड़ा कुपित हुआ और उसने भयंकर आकृति बनाली क्रोध के वेग से काँपता हुआ वह चमरेन्द्र देवों से बोला-“हे देवों! . देवेन्द्र शक दूसरा और असुरेन्द्र असुरराज चमर दूसरा है ? देवेन्द्र देवराज शक बड़ी ऋद्धिवाला है, तो हे देवानुप्रियो मैं देवराज देवेन्द्र शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करूँगा।" १-भगवती-सूत्र में यहाँ मूल शब्द है 'अपत्थियपत्थए,' इसका संस्कृत रूप है 'अप्रथितप्रार्थक ।' 'अपत्थिपत्थए' शब्द का यही अर्थ आवश्यक की हरिभद्रीय टीका (पत्र १६२-१) में भी दिया है । पर, इसका अच्छा स्पटीकरण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति को टीका वक्षस्कार ३, सूत्र ४५, पत्र २०२-१) में है । अप्रायित-केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावात्मरणं तस्य प्रार्थको–अभिलाषी, अयमर्थः- यो मयासह युयुत्सुः स मुमूर्षरेवेति, दुरन्तानि । मनुष्य के लिए अथित और प्रार्थित क्या है इस पर दशवैकलिक में प्रकाश डाला गया हैसब्वे जीवा वि इच्छंति जीवीउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ।। दशवैकालिक सूत्र सटीक अध्याय ६, गाथा २१९, पत्र १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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