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(२३२) करते गाँव-गाँव फिरते हुए, जिस ओर सुंसुमारपुर नगर है, जिस ओर अशोक वन खंड है, जिस ओर उत्तम अशोक के वृक्ष हैं, जिस ओर पृथ्वी शिलापट्टकरे है, उस ओर आया। उसके बाद अशोक के उत्तम वृक्ष के नीचे, पृथ्वी शिलापट्टक पर अट्ठम (तीन उपवास) तप प्रारम्भ किया। मैंने दोनों पैर मिला ( साह? ) करके हाथों को नीचे की ओर लम्बे कर, एक पुद्गल पर (निनिमेष) दृष्टि स्थिर करके, शरीर के अंगों को स्थिर करके शरीर के अंगों को यथास्थित रख कर, सभी इंद्रियों से गुप्त, एक रात्रि की मोटी प्रतिमा स्वीकार की।
"उस काल में उस समय में चमरचंचा राजधानी में इन्द्र नहीं था और पुरोहित नहीं था । उस समय पूरण नाम का बाल-तपस्वी १२ वर्ष पर्याय १-यह सुंसूमारगिरि प्रतीत होता है । भग्ग (भंगी) देश की राजधानी थी।
भग्ग देश वैशाली और सावत्थी के बीच में ही था। इसका वर्तमान
नाम चुनार है। २-मृसण शिलायाम-आ० म० १ अ० (चिकनी चट्टान) ३-चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ। पायाणं उस्सग्गे एसा पुण होइ जिणमुद्दा ।
-प्रवचन सारोद्धार सटीक, १, ७५, पत्र १२-२ इस पर टीका करते हुए नेमिचन्द्र सूरि ने लिखा हैएषा पुनर्भवति जिनमुद्रा यत्र पादपोरुत्सर्गेऽन्तरं भवति । चत्वार्यगुलानि पुरत: अग्रभागे न्यूनानि च तानि पश्चिम भागे इति ॥
-वही, पत्र १५-२ जिनमुद्रा-जिसमें पैर के अग्रभाग में चार अंगुल और पीछे की ओर चार अंगुल से कुछ कम अंतर रख करके, दोनों पैरों को समान रखकर खड़े होकर, दोनों हाथों को नीचे लटका कर रखा जाता है।
-धर्मसंग्रह (गुजराती भाषानुवाद) भाग १, पृष्ठ ३८६ । जिनमुद्रा का यही विवरण 'विधिमार्गप्रपा' (पृष्ठ ११६) आदि ग्रन्थों भी मिलता है।
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