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________________ ग्यारहवाँ चातुर्मास दसवाँ चातुर्मास समाप्त होते ही भगवान ने श्रावस्ती से सानुलट्ठिय सन्निवेश की तरफ विहार किया। यहाँ पर आप भद्र', महाभद्र और सर्वतोभद्र' प्रतिमाओं की आराधना करते हुए ध्यानमग्न रहे और अविच्छिन्न सोलह उपवास किये। तप का पारना करने के लिए, भगवान् आनन्द गृहपति के घर गये। आनन्द की बहुला-नामक दासी रसोई में बरतन साफ कर रही थी और ठण्डा अन्न फेंकने जा रही थी। इतने में भगवान् वहाँ आ पहुँचे। दासी ने पूछा-''महाराज, आपको क्या चाहिए ?" उस समय भगवान् ने दोनों हाथ पसारे और दासी ने बड़ी भक्ति से उस अन्न को उनके हाथों पर रखा। और, १-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येक प्रहर चतुष्टय कायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्र द्वय मानेति-स्थानांग सूत्र सटीक, प्रथम भाग, पत्र ६५-२ । पूर्व आदि चारों दिशाओं में प्रत्येक में चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना। इसका-प्रमाण दो अहोरात्र है। २--महाभद्रापि तथैव, नवरमहोरात्र कायोत्सर्गरूपा अहोरात्र चतुष्टय माना -स्थानांग सूत्र सटीक, प्रथम भाग, पत्र ६५-२। पूर्व आदि चारों दिशाओं में अहोरात्र कायोत्सर्ग करना। इसका मान चार अहोरात्र है। ३-सर्वतोभद्र तु दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्र कायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशक प्रमाणेति ।-स्थानांग सूत्र सटीक, प्रथम भाग, पत्र ६५-२। दशों दिशाओं में प्रत्येक में अहोरात्र कायोत्सर्ग करना। इसका मान दस अहोरात्र है। ४--आवश्यकचूणि प्रथम भाग, पत्र ३०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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