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________________ (२१४) मात्र का आवेश उत्पन्न नहीं हुआ । अपने कर्मों का क्षय होते देख उनकी आत्मा में एक अलौकिक आनन्द का अनुभव होता । और उनके मुख पर प्रसन्नता की एक विशेष आभा दृष्टिगोचर होती । करुणामूर्ति महावीर का समभाव यहाँ पूर्ण रूप से खिल उठता । आनार्य लोग भगवान् को पीड़ा पहुँचाने में कोई कसर न छोड़ते; लेकिन भगवान् महावीर के करुणा पूर्ण नेत्रों पर जब उनकी दृष्टि पड़ती तब उनकी क्रूरता पिघलने लगती । इन चार महीनों में भगवान् को रहने के लिए कोई स्थान नहीं मिला । अतः, यह नवाँ चौमासा भगवान् ने पेड़ों के नीचे या खंडहरों में ध्यान धर कर और घूम कर ही समाप्त किया । छद्मस्थ काल में यही एक चौमासा भगवान् ने अनायंदेश में किया । छः महीने तक अनार्य देश में विचर कर वर्षा काल के बाद भगवान् आर्यदेश में वापस आ गये । २ २ - आवश्यक चूरिण, प्रथम खंड, पत्र २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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