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(१८७) पाली प्रापर नेम्स, भाग २, पृष्ठ १८७) पर जैन-ग्रंथों में उसे स्वतंत्र राज्य बताया गया है। बौद्ध-ग्रंथों में उसे राजन्य' लिखा है ( 'पायासि राजन्नो' दीधनिकाय, भाग २, पृष्ठ २३६ ) दीधनिकाय के हिन्दी-अनुवादकों राहुल साँकृत्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप को 'राजन्य' शब्द का अर्थ नही लगा। उन्होंने उसे सीधा 'राजन्य' ही लिख दिया । और, एक स्थान पर उसका अर्थ मांडलिक राजा लिखा। (दीघनिकाय, हिन्दी, पृष्ठ १६६ ) इससे अधिक भयंकर भूल डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स में है जहाँ 'राजन्य' का अर्थ 'चिफ्टेन' लिखा है । पर, 'राजन्य वस्तुतः क्षत्रियों का एक कुल था। जैन-ग्रन्थों में उसे ६ कुलों में गिनाया गया है ( देखिए वैशाली, हिन्दी पृष्ठ २६ ) आवश्यक नियुक्ति (पृष्ठ ३१, गाथा १३३ ) में भी 'राजन्य' को क्षत्रिय का एक कुल बताया गया है :-~-उग्गा भोगा रायणएा खत्तिआ...
आवश्यक चूणि (पत्र २७८) में आता है "तस्स य अदूरे सेयंविया नाम नगरी"- यह श्वेताम्बी नगरी कनकखल आश्रमपद के पास ही थी। यह श्वेताम्बी सावत्थी से राजगह जाने वाले मार्ग पर अगला पड़ाव था। रायपसेणी में इसे सावत्थी के निकट बतलाया गया है। फाहयान और बौद्धग्रन्थों में भी इसकी स्थिति सावत्थी के निकट कही गयी है। कुछ लोग आधुनिक सीतामढ़ी को श्वेताम्बी मानते हैं; परन्तु जैन और बौद्ध दोनों मतों से यह स्थापना अनुकूल नहीं पड़ती; क्योंकि सीतामढ़ी तो सावत्थी से २०० मील दूर है। मि० बोस्ट ने बलेदिला को प्राचीन श्वेताम्बी माना है जो सहेत-महेत से १७ मील दूर और बलरामपुर से ६ मील है।
वहाँ से भगवान् ने सुरभिपुर की ओर विहार किया। सुरभिपुर जाते हुए, मार्ग में भगवान् को रथों पर जाते हुए पाँच नैयक (नयक:-नये कुशषुशब्दार्थ चिंतामणि, भाग २, पृष्ठ १३४० ) राजे मिले । उन सब ने भगवान् की वंदना की। ये राजा प्रदेशी राजा के पास जा रहे थे ।'
१-आ० चू०, प्रथमभाग, पत्र २८०; गुणचन्द्र-रचित महावीरचरित्र,
पत्र १७७-२।
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