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(१८५) विषाक्त दृष्टि भगवान के ऊपर डाली । साधारण प्राणी तो उस सर्प के दृष्टिपात् मात्र से ही भस्म हो जाता था। पर, भगवान पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उस प्रकार उसने दूसरी और तीसरी बार भी दृष्टि डाली। पर निष्फल रहा। अब उस सर्प का क्रोध एक दम बढ़ गया । आग-बबूला होकर उसने भगवान् के पांव में काट लिया। इससे भगवान् के चरणों से रक्त के बजाय दूध की धारा बह निकली। इस विचित्रता से चण्डकौशिक स्तब्ध रह गया। और, दूर हट कर अपने विष के प्रभाव की प्रतीक्षा करने लगा। पर, भगवान की शांति और स्थिरता में जरा भी अंतर नहीं आया। उसने दो बार और भगवान् को काटा; पर निष्फल रहा । इस घटना से उसका क्रोध और अभिमान दोनों ही नष्ट हो गये। उसी समय अपना ध्यान समाप्त करते हुए भगवान महावीर बोले----उवसम भो चण्डकोसिया ! ( चंडकौशिक शान्त हो !)। ___ भगवान के मुख से अपना पूर्व नाम सुन कर, उसे अपनी पुरानी कथा स्मरण हो आयी। वह भगवान के चरणों में आ गिरा, अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने लगा और अनशन का व्रत ले लिया। सर्प को इस तरह पड़े देख कर ग्वाले पत्थर से मारने लगे। ग्वालों ने जब देखा कि, वह सर्प किंचित् मात्र हिलता-डुलता नहीं, तो वे निकट आये और भगवान् के चरणों में गिर कर उनकी महिमा का गान करने लगे। ग्वालों ने सर्प की पूजा की। (घयविकिरिणओ) घी बेचने वाली जो औरतें उधर से जाती तो वे उस सर्प को घी लगातीं और स्पर्श करतीं। फल यह हआ कि, सर्प के शरीर पर चींटियाँ लगने लगीं। इस प्रकार सारी वेदनाओं को समभाव से सहन करके वह सर्प आठवें देवलोक सहस्त्रार में देवरूप से उत्पन्न हुआ।
भगवान् ने आगे विहार किया और उत्तर वाचाला में नागसेन के घर पर जाकर पन्द्रह उपवास के तप का पारना खीर से किया। वहाँ 'पञ्चदिव्य' प्रकट हुए। नागसेन का लड़का १२ वर्षों से बाहर चला गया था। अकस्मात् वह भी उसी दिन घर वापस लौटा ।
उत्तर-वाचाला से भगवान् श्वेताम्बी नगरी गये । श्वेताम्बी-नगरी
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