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________________ (१७०) भगवान् महावीर को वहाँ ठहरा हुआ देख, व्यन्तर ने सोचा- " यह कोई मरने की इच्छा से यहाँ आया मालूम होता है । इसने गाँव के लोगों की तथा पुजारी की बात नहीं मानी और यहाँ आकर खड़ा हो गया । रात्रि होने दो तो फिर मैं इसकी खबर लेता हूँ ।" ज्यों ही सूर्यास्त हुआ, व्यन्तर ने अपने पराक्रम दिखलाने शुरू कर दिये । सब से पहले, उसने भयंकर अट्टहास किया, जिससे सारा जंगल कम्पायमान हो उठा । लेकिन, भगवान् महावीर इससे अपने ध्यान से जरा भी टस से मस नहीं हुए । तब उसने हाथी का रूप धारण किया और दंत-प्रहार करने लगा तथा पाँव से रौंदने लगा । फिर भी भगवान् महावीर अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए । तब उसने विकराल पिशाच का रूप धारण किया और तेज नाखूनों और दाँतों से भगवान् के अंगों को काटने लगा । लेकिन, महावीर अपने ध्यान में निश्चल रहे । फिर विषधर सर्प बनकर वह भगवान् को काटने लगा; लेकिन फिर भी वह अविचलित रहे । अंत में क्रुद्ध होकर यक्ष ने अपनी दिव्य शक्ति से भगवान् के आँख, कान, नाक, शिर, दाँत, नख और पीठ में ऐसी भयंकर वेदना उत्पन्न की कि, जिससे साधारण मनुष्य तो मृत्यु को प्राप्त हो जाता' लेकिन, क्षमाशील महावीर इन वेदनाओं को धैर्यपूर्वक सहन कर गये । इस प्रकार सारी रात शूलपाणि यक्ष ने भगवान् महावीर को नाना प्रकार की वेदनाएँ दीं। लेकिन जब उसने देखा कि भगवान् महावीर पर उसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ा तब उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली । भगवान् महावीर के दृढ़ मनोबल से टकराकर उसकी दुष्ट मनोवृत्तियाँ चूर हो गयीं । इसी समय सिद्धार्थ व्यन्तर देव ने प्रकट होकर शूलपाणि की भूल उसे बतायी । और, शूलपाणि क्षमाशील भगवान् के चरणों में गिरकर अपने अपराधों की क्षमा याचना करने लगा और उनके धैर्य तथा उनकी सहनशीलता का गुणगान करने लगा । १ - - एकापि वेदना मृत्युकारणं प्राकृते नरे । अधिसेहे तु ताः स्वामी सप्तापि युगपद्भवाः ॥ १३२॥ - त्रिपष्टि शलाका पुरुष चरित, पर्व १०, सर्ग ३, पत्र २३-२ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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