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(१५८) देवराय ने भगवान् के उन केशों को एक वस्त्र में ले लिया और उन्हें क्षीरसमुद्र में बहा दिया। तब भगवान् के “नमो सिद्धाणं" कहकर "करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि" (मैं सामायिक-चरित्र अंगीकार करता हूँ और यावज्जीवन सावद्य-पापवाले व्यापार का त्याग करता हूँ )। इस प्रकार उच्चरित करते ही, भगवान् को चौथा मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने गृहस्थ जीवन का त्याग प्रत्यक्षरूप से किया। और, साधु बन गये। वे घर से लुक-छिपकर नहीं भागे; बल्कि अपने आत्मबल से सब कुटुम्ब को समझाकर, डंके की चोट पर सिंह की तरह, घर से निकल कर अणगार हुए।
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