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स्नान
के राजा तथा सार्थवाह प्रभृति देव देवियाँ तथा पुरुष समूह जुलूस में चल रहे थे । इन सबके बाद नन्दिवर्द्धन राजा करके अच्छी तरह विभूषित होकर, हाथी पर बैठकर, कोरंट-वृक्ष के पुष्पों की माला से युक्त, छत्र को धारण करके, भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे थे । उन पर श्वेत चामर झला जा रहा था । और, हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल चतुरंगिणी सेना उनके साथ थी । उसके बाद स्वामी के आगे १०८ घोड़े, और घुड़सवार और अगल-बगल में १०८ हाथी और हाथी के सवार और पीछे १०८ रथ चल रहे थे ।
इस प्रकार बड़ी रिद्धि से और बड़े समुदाय के साथ, शंख, परणव (ढोल), भेरी, झल्लरी, खरमुही डुक्कीत, मुरज ( ढोलक), मृदंग, दुन्दुभी, आदि वाद्यों की आवाज के साथ कुंडपुर के मध्य में होते हुए ज्ञाताखण्डवन उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे भगवान् के साथ चले जा रहे थे । अभिषेक के अवसर के समान उस समय बहुत से देव कुंडपुर नगर में आये थे । वे "जय जय नंदा जय जय भद्दा.. ." आदि उच्चरित कर भगवान् की स्तुति करने लगे । भगवान् ज्ञातखण्डवन में अशोक वृक्ष के नीचे आकर अपनी पालकी से उतरे । भूमि पर उतरने के बाद भगवान् ने अपने आभूषण अलं - कार स्वयं उतारे । कुल की एक वृद्धा नारी ने उनको उठा लिये । उस वृद्धा नारी ने उन्हें विदा देते हुए कहा
पुनः
" हे पुत्र, तुम तीव्र गति से चलना, अपने गौरव का ध्यान रखना । असि की धारा के समान महाव्रत का पालन करना, और श्रमण-धर्म में प्रमाद न करना । निर्दोष ऐसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा तुम नहीं जीती हुई इन्द्रियों को वश में कर लेना । विघ्नों का मुकाबला करके तुम अपने साध्य की सिद्धि में सदा लगे रहना । तप के द्वारा तुम अपने राग और द्वेष नामक मलों को नष्ट कर डालना, धैर्य का अवलम्बन करके उत्तम शुक्लध्यान द्वारा आठ कर्मशत्रुओं को नष्ट कर देना ।" इस प्रकार कहकर नन्दिवर्धन आदि स्वजनवर्ग भगवान् को वन्दन करके नमस्कार करके स्तुति करके एक ओर बैठ गये । फिर, भगवान् ने स्वयं पंचमुष्टि लोच किया । उस समय शक्र देवेन्द्र
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