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महा-अभिनिष्क्रमण भगवान् महावीर जब २८ वर्ष के हुए, तब उनके माता-पिता का देहान्त हो गया । माता-पिता के देहान्त के बाद, भगवान् ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन के पास जाकर कहा कि मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई और अब मैं दीक्षा लेना चाहिता हूँ। नन्दिवर्द्धनने उन्हें समझाने की चेष्टा की। कहा कि, अभी माता-पिता के निधन का ही हम को बहुत शोक है। ऐसे समय पर आपका यह वचन घाव पर नमक छिड़कने सरीखा है । अतः, जब तक शोक से स्वस्थ-मन न हो जायें, आप कुछ काल तक ठहरिये। भगवान् ने उनसे ठहरने की अवधि पूछी। नन्दिवर्द्धनने कहा-“दो वर्ष तक ।" भगवान्ने बड़े भाई की आज्ञा स्वीकार कर ली। पर, इस दो वर्ष की अवधि में भी भगवान्ने साधु-सरीखा ही जीवन व्यतीत किया। इस काल में वे गरम पानी पीया करते थे। निर्दोष आहार करते थे । रात्रि को वे कभी नहीं खाते थे। जमीन पर ही लेटते थे और पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।
इस प्रकार जब एक वर्ष व्यतीत हो गया, तो उन्होंने दान देना प्रारम्भ किया । वें प्रतिदिन १ करोड ८ लाख स्वर्ण' (सिक्का विशेष) का दान करते थे। इस प्रकार वर्ष भर में उन्होंने ३ अरब ८८ करोड ८० लाख स्वर्ण का दान दिया।
भगवान् की दीक्षा लेने का निश्चय जब देवलोक के देवताओं को अवधिज्ञान से प्राप्त हुआ, तब वे सब देव आये और लोकान्तिक देवों ने भगवान् से १ (अ) पोडश कर्ममाषकाः एकः सुवर्णः... पञ्च गुञ्जाः एकः कर्ममाषक:
-अनुयोगद्वार सटीक, पत्र १५६।१। (आ) धान्यमाषा दश सुवर्ण माषक: पंच वा गुंजाः ते षोडश सुवर्णः कर्षो वा ॥
-कौटिलीय अर्थशास्त्र २ आधि, ३७ प्र., पृष्ठ १०३ । (इ) पञ्चकृष्णलको भाषस्ते सुवर्णस्तु षोडष ॥
-मनुस्मृति ८।१३५ भट्टमेधातिथि-भाष्य, पृष्ठ ६१८
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