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________________ (११४) शक्रा देशकारीपदात्पनीकाधिपतिः येन शक्रादेशाद्भगवान् महावीरो देवानन्दा गर्भात त्रिशलागर्भेसिंहृत इति ।" - पवित्रकल्पसूत्र टिप्पनखण्ड, पृष्ठ ५ इसी तरह की टीका कल्पसूत्र की सन्देह विषौषधि टीका (पत्र ३१) में दी हुई है :-- " हरिणैग मेसिंति" हरेरिन्द्रस्य नैगमेषी आदेशप्रतीच्छक इति व्युत्पत्त्याऽन्वर्थनामानं हरिणैगमेषि नाम पदात्यनीकाधिपतिं देवं सहावे इति, आकारयति हरेरिन्द्रस्य संबंधी नैगमेषिनामा देव इति केचित् । अतः स्पष्ट है कि जैन-ग्रन्थों में भी उसका मूलनाम नैगमेषी ही है और हरि-इन्द्र - का आदेश - पालक होने से उसे हरिगँगमेसी कहते हैं । यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत का 'न' प्राकृत में 'ण' हो जाता है | अतः उसका नाम संस्कृत नैगमेषी और प्राकृत में गंगमेषी है । आवश्यक की मलयगिरि की टीका (पूर्वभाग, पत्र २५५ - १ ) में 'ऐोगमेसी' शब्द आया है । और, 'संस्कृत' में 'नैगमेषी' शब्द लोकप्रकाश (द्वितीय विभाग, पत्र ३३५ - १ ), त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १०, सर्ग २, श्लोक २६ (पत्र १२ - १), पद्मानंदमहाकाव्य के श्रीमहावीरजिनेन्द्र के चरित्र - प्रकरण ( पृष्ठ ५८०) भावदेवसूरि - कृत पार्श्वनाथचरित्रम् सर्ग ५, श्लोक ८०, ( पत्र २३० - २) आदि ग्रन्थों में मिलता है । कोषों में भी हरिगंगमेसी शब्द का संस्कृतरूप 'हरिर्नंग मेसी लिखा है (पाइसदमहण्णावो, पृष्ठ १९८६ ) 'हरिगंगमेसी' शब्द के 'हरिण' शब्द से संगत बैठाकर उसे हरिण के मुखवाला कहना सर्वथा भ्रामक है ।' जैकोबी ने 'सेक्रेड बुकस आवद' ईस्ट' खण्ड २२ में कल्पसूत्र के अनुवाद में (पृष्ठ २२७ ) पादटिप्पणि में ठीक लिखा है कि चित्रों में हरियाँ गमेसी का मुख हरिण बना देना वस्तुतः हरिणगमेसी शब्द के अशुद्ध विग्रह का फल है । १ - बैरोनेट ने अंतागडदसाओ के अनुवाद ( पृष्ठ ६७ ) और एन० वी० वैद्यने अंतगडसाओ में 'नोट्स' के पृष्ठ १६ पर यही भूल की है और हरिगमेसी को हरिण के मुखवाला लिखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001854
Book TitleTirthankar Mahavira Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1960
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, Story, N000, & N005
File Size20 MB
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