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ऐसा कहकर हरिगमेषी अपने दिव्य प्रभाव से सुख पूर्वक भगवन्त को दोनों हथेली में ग्रहण करता है । ग्रहण करते समय गर्भ या माता को जरा-सी भी तकलीफ मालूम नहीं होती । भगवान् को करसंपुट में धारण कर, वह देव क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में आकर, जहाँ सिद्धार्थ क्षत्रिय का घर है, जहाँ त्रिशला क्षत्रियाणी सोती है, वहाँ जाता है । जाकर सपरिवार त्रिशला क्षत्रियागी को अस्वापिनी (क्लोरोफार्म ) निद्रा देकर, अशुभ पुद्गलों को दूर कर शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपन करके भगवान् महावीर को दिव्य प्रभाव से जरा भी तकलीफ न हो इस प्रकार त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरूप से प्रवेश कराता है । और, जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भ था, उसे देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में जाकर रखता है । यह कार्य करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा को चला गया ।
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+ (६) माहणकुण्डग्गामे कोडाल सगुत्त माहणो अस्थि । तस्स घरे उवबन्नो देवाणंदाइ कुच्छिसि ॥ २८७ ॥ सुमिरणमवहार भिम्गह जम्मणमभिसेअवुड्ढीसरणं च । भेसण विवाहवच्चे दाणे संबोह निक्खमणे ||२८|| वत्तिय कुण्डग्गामे सिद्धत्थो नाम खत्तिओ अस्थि । सिद्धत्थ भारिआए साहर तिसलाइ कुच्छिसि ||२५|| बाढं ति भणिऊण वास रत्तस्स पंचमे पक्खे | साहरइ पुव्वरत्ते हत्थुत्तर तेरसी दिवसे ॥ २९६॥ दुण्हवर महिलाणं गब्भे वसिऊण गब्भसुकुमालो । नव मासे पडिपुन्ने सत्तय दिवसे समइरेगे ||३०३ ॥
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- आवश्यक नियुक्ति, पृष्ठ ८०-८३ मलयगिरि - टीका पूर्वभाग पत्र २५२ - २; हरिभद्र - टीका पत्र १७८ - १; दीपिका ८८-२
अर्थात् - ब्राह्मणकुण्डग्राम में कोडाल गोत्र का ब्राह्मए ( ऋषभदत्त ) है | उसके घर में देवानन्दा की कुक्षि में (भगवान्) उत्पन्न हुए हैं । २८७
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