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प्रतिज्ञाविरोध
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चैतन्यपूर्वकं चिदविवर्तत्वात् मध्यविदूविवर्तवदित्युक्ते यचैतन्यस्य मातापिढचैतन्यपूर्वकत्वाङ्गीकारात् सिद्धसाध्यत्वेन हेतोः अकिंचित्करवोभावते पश्चात् आद्यं चैतन्यस् एक संतान चैतन्यपूर्वकं चिद्विवर्तत्वात् मध्यचिदविवर्तवदित्यादि ॥ [ ७३. प्रतिज्ञाविरोधः 7
धर्मधर्मिविरोधः प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानम् । सर्वज्ञो न किंचिद जानाति जिज्ञासारहितत्वात् सुषुप्तवदित्यादि । केचित् साध्यसाधनयोः विरोधं प्रतिज्ञाविरोधमाचक्षते तन्मतेऽस्य विरुद्धहेत्वाभासत्वेनैव निग्रहत्वात् ॥ [ ७४ प्रतिज्ञासंन्यासः ]
उक्त हेतौ दूषणोद्भाव स्वसाध्यपरित्यागः प्रतिज्ञासंन्यासो नाम
"चैतन्य चैतन्यपूर्वक होता है यह साध्य पहले ही सिद्ध है अतः यहां हेतु अकिंचित्कर (व्यर्थ ) है ऐसा कहने पर फिर यह कहना कि पहले ( जन्मसमय के ) चैतन्य के पहले एक ही सन्तान का चैतन्य होता है क्यों कि वह चेतना का विवर्त है जैसे कि मध्यकालीन चेतनाविवर्त होता है ( यहां पहली प्रतिज्ञा यह थी कि पहला चैतन्य चैतन्यपूर्वक होता है, बाद में इस प्रतिज्ञा को बदल कर यह स्वरूप दिया गया कि पहला चैतन्य तथा उस के पहले का चैतन्य एकही सन्तान के - एकही व्यक्तित्व के होने चाहिएं अतः यह प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान हुआ ) । प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान
धर्म (गुण) और धर्मी ( गुणवान् ) में विरोध होना यह प्रतिज्ञा• विरोध नाम का निग्रहस्थान है । जैसे- सर्वज्ञ कुछ नहीं जानता क्यों कि वह सोए हुए व्यक्ति के समान जिज्ञासारहित है ( यहां सर्वज्ञ अर्थात जो सब जानता है वह धर्मी है, उस का कुछ न जानना इस धर्म से स्पष्ट ही विरोध है अतः यह प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान हुआ ) । प्रतिज्ञासंन्यास निग्रहस्थान
हेतु बतलाने पर दूषण दिखलाने पर अपने साध्य को छोड देना यह प्रतिज्ञा संन्यास नाम का निग्रहस्थान है । जैसे- शब्द अनित्य है क्यों कि वह
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