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________________ __१.६४] अर्थापत्तिसमा ६१ भावी वा । आधे प्राक्काले साध्याभावाद् हेतुः कस्य साथको भवेत्, न कापि । द्वितीये साध्यस्य प्रागेव सिद्धत्वात् किमनेन हेतुना । तृतीये तौ सावनभावरहितौ समकाल भावित्वात् सव्येतरगोविगणयदिति । [ ५५. अर्थापतिमा | अर्थापत्या प्रत्यवस्थानम् अर्थापत्तिसमा जातिः । उदाहरणम्अतित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्युक्ते संकेतव्यवहारान्यथानुपपत्तेः शब्दो नित्यः स्यादिति ॥ [ ६४. अविशेषसमा | एतद्धर्माविशेषेण प्रतिकूलप्रसंगः अविशेषसमा जातिः । उदाहरणम् - अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति प्रसाध्येत तर्हि अनित्य - नही हो सकता क्योंकि वे दोनों समान समय में विद्यमान हैं । (इन आक्षेपों को जाति इसलिए कहा कि उन में कोई तथ्य नहीं है, हेतु साध्य से पहले है या बाद में इससे अनुमान के सही होने में कोई अन्तर नहीं पडता; कृत्तिका के उदय से रोहिणी के उदय का अनुमान सही है, यहां हेतु साध्य से पहले विद्यमान है; बाढ से वर्षा का अनुमान सही होता है, यहां हेतु साध्य के बाद भी विद्यमान है; धुंए से अग्नि के अनुमान में हेतु और साध्य दोनों एक ही समय में विद्यमान होते हैं ) । अर्थापत्तिसमा जाति अर्थापत्ति का प्रयोग कर के उत्तर देना यह अर्थापत्तिसमा जाति है । जैसे - शब्द अनित्य है क्यों कि वह वट जैसा कृतक है इस अनुमान के उत्तर में यह कहना कि शब्द नित्य है क्यों कि ऐसा माने बिना संकेतों के व्यवहार की उपपत्ति नही लगती । ( आगे परिच्छेद ६९ में आचार्य ने इस जाति को प्रकरणसमा जाति से अभिन्न बतलाया है ) | अविशेषसमा जाति उसी गुणधर्म की समानता बतला कर विरोध का प्रसंग व्यक्त करना यह अविशेषसमा जाति है । जैसे- शब्द अनित्य है क्यों कि वह वट जैसा तक है ऐसा सिद्ध किया जाने पर यह कहना कि घट के समान सत् (विद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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