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________________ २८ प्रमाप्रेमयम् पर्वतोऽग्निमान् महानसस्य धूमवत्त्वात् मठवत् । पक्षैकदेशे वर्तमानो हेतुः भागासिद्धः, अनित्यः शब्दः प्रयत्नजन्यत्वात् पटवत्। पक्षेऽविद्यमानविशेप्यो हेतुः विशेष्यासिद्धः, अनित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सति चाक्षुषत्वात् । पक्षेऽविद्यमानविशेषणो हेतुः विशेषणासिद्धः, अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वे सति सामान्यवत्त्वात्। पक्षे अज्ञातो हेतुः अज्ञातासिद्धः, . रागादिरहितः कपिलः उत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् । संदिग्धासिद्धश्चायमेव । पक्षे संदिग्धविशेप्यो हेतुः संदिग्धविशेष्यासिद्धः, कपिलो रागादिमान् पुरुषत्वे सति अनुत्पन्नतत्त्वज्ञानत्वात् । पक्षे संदिग्धविशेषणो हेतुः संदिग्धविशे (पक्ष से ) भिन्न स्थान में प्रयुक्त हेतु व्यधिकरणासिद्ध होता है, जैसे-पर्वत अग्नि से युक्त है क्यों कि रसोईघर धुंए से युक्त है जैसे मठ ( यहां धुंए से युक्त होना यह हेतु पर्वत इस पक्ष में न बतला कर उस से भिन्न स्थान रसोईघर में बतलाया है अतः यह व्यधिकरणासिद्ध है)। पक्ष के एक हिस्से में जो विद्यमान हो ( सर्वत्र न हो ) उस हेतु को भागासिद्ध कहते हैं, जैसे -शब्द अनित्य है क्यों कि वह प्रयत्न से उत्पन्न होता है जैसे वस्त्र ( यहां प्रयत्न से उत्पन्न होना यह हेतु शब्द इस पक्ष के एक हिस्से में विद्यमान है, सर्वत्र नहीं, क्यो कि अक्षरात्मक शब्द तो प्रयत्न से उत्पन्न होता है और मेघगर्जनादि ३८द दिना प्रयत्न के भी उत्पन्न होता है अतः यह हेतु भागासिद्ध है)। जिस का विशेष्य पक्ष में विद्यमान न हो वह हेतु विशेष्यासिद्ध होता है, जैसे - शब्द अनित्य है क्यों कि वह सामान्ययुक्त होते हुए चाक्षुष होता है ( यहां सामान्ययुक्त होते हुए चाक्षुष होना इस हेतु का विशेष्य अर्थात चाक्षुष होना शब्द इस पक्ष में नहीं पाया जाता अतः यह हेतु विशेष्यासिद्ध है)। जिस हेत का विशेषण पक्षमें विद्यमान न हो वह विशेषणासिद्ध होता है, जैसे- शब्द अनित्य है क्यों कि वह चाक्षुष होते हुए सामान्ययुक्त है (यहां चाक्षुष होते हुए सामान्ययुक्त होना इस हेतु का विशेषण अर्थात चाक्षुष होना शब्द इस पक्ष में नहीं पाया जाता अतः वह हेतु विशेषणासिद्ध है) । पक्ष में जिस हेतु के अस्तित्व का ज्ञान न होता हो,वह अज्ञाता सिद्ध होता है,जैसेकपिल राग आदि से रहित हैं क्यों कि उन्हें तत्त्वज्ञान उत्पन्न हुआ है (यहां कपिल इस पक्ष में तत्त्वज्ञान उत्पन्न होना इस हेतु का अस्तित्व जाना नहीं गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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