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मानसप्रत्यक्ष
उपकरणं सर्वाङ्गत्वग्जिह्नानास गोलकपक्ष्म पुटकर्णशष्कुलीविवरप्रभृति । मनसो हृदये अष्टदलपद्माकारं द्रव्येन्द्रियम् । लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । तत्र ज्ञानावरणक्षयोपशमः लब्धिः । आत्मनो ग्रहणव्यापार उपयोगः । स्पर्श रसगन्धरूपशब्दात्मस्मृत्यादयो विषयाः ॥
[५. मानसप्रत्यक्षम् ]
आत्मावधानेन सहकृतात् मानसात् जातं मानसप्रत्यक्षम् । स्पशनराणश्रोत्रेन्द्रियं प्रातायें ज्ञानजनकम् । चक्षुरप्रा तार्थे । मानसं स्वात्मनि
आकार की, ( घ्राणेन्द्रिय के लिए ) कुन्द की कली जैसी, ( चक्षु इन्द्रिय के लिए ) मसूर के दाने जैसी तथा ( कर्ण इन्द्रिय के लिए ) जौ की नाली जैसी होती है । (स्पर्शनेन्द्रिय के लिए ) उपकरण संपूर्ण शरीर की त्वचा है, ( रसनेन्द्रिय के लिए ) जीम, ( घ्राणेन्द्रिय के लिए ) नाक का गोल भाग, ( चक्षु इन्द्रिय के लिए ) पलकें, तथा ( कर्ण इन्द्रिय के लिए ) कान का शष्कुलीविर उपकरण होता है । हृदय के स्थान में आठ पंखुडियों के कमल के आकार का मन है, वह मन के लिए द्रव्येन्द्रिय ( द्रव्यमन ) समझना चाहिए । भावेन्द्रिय के दो भाग हैं - लब्धि तथा उपयोग । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं । आत्मा द्वारा ( पदार्थ के ) ग्रहण ( जानने ) के लिए प्रयत्न करना यह उपयोग कहलाता है । स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द तथा अपना स्वरूप एवं स्मृति आदि ( इन इन्द्रियों के तथा मन के ) विषय हैं |
मानस प्रत्यक्ष
आत्मा के अवधान के सहकार्य से मन द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह मानस प्रत्यक्ष है । स्पर्शन, रसन, प्राण तथा श्रोत्र ये इंद्रिय प्राप्त अर्थ का ( - जिस से संपर्क हो उसी पदार्थ का ) ज्ञान कराते हैं । चक्षु अप्रात अर्थ ( जिस से संपर्क न हो उस पदार्थ ) का ज्ञान कराता है । आमा तथा उसकी बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष एवं प्रयत्न के प्राप्त होने पर मन उन के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न करता है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ऊहापोह,
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