SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ '१५६ प्रमाप्रमेयम् ७ प्राण = १ स्तोक, ७ स्तोक = १ लव, ७७ लव = १ मुहूर्त, ३० मुहूर्त १ अहोरात्र, १५ अहोरात्र = १ पक्ष, २ पक्ष = १ मास, २ मास = १ ऋतु, ३ ऋतु = १ अयन, २ अयन = १ संवत्सर, ५ संवत्सर = १ युग, २० युग = १ वर्षशत, १० वर्षशत = १ वर्षसहस्र, ५०० वर्षसहस्र - १ वर्षशतसहस्र, ८४ वर्षशतसहस्र = १ पूर्वांग ( यहां से ऊपर प्रत्येक माप पूर्वमाप के ८४ लक्ष गुणित बतलाया है, जिन के नाम हैं - पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अवांग, अवय, हुहुअंग, हुहुअ, उत्पलांग, उत्पल, पांग, - पद्म, नलिनांग, नलिन, अच्छनिउरंग, अच्छनिउर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, 'प्रयुत, नमितांग, नमित, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका)। गणितसारसंग्रह (अ. १, श्लो. ३२-३५) में कालप्रमाण की गणना - एक वर्ष की अवस्था तक बतलाई है। वह यहां आचार्य द्वारा दी गई तालिका · से मिलती है। तिलोयपण्णत्ती (अ. ४, गा. २८५-२८६ ) में भी कालगणना की · रीति बतलाई है। उपमान प्रमाण (परि० १२८) अतिविस्तृत क्षेत्र और काल की गणना के लिए उपमाओं के द्वारा पल्योपम, सागरोपम आदि संज्ञाओं का प्रयोग करना जैन ग्रन्थों की विशेषता है। इन्हीं संज्ञाओं को वहां उपमान प्रमाण कहा है (न्यायदर्शन में वर्णित उपमान का इस से कोई संबन्ध नही है, उस उपमान का समावेश पूर्वोक्त प्रत्यभिज्ञान परोक्ष प्रमाण में होता है यह ऊपर बताया है)। इस विषय का वर्णन कई ग्रन्थों में मिलता है जिन में प्रमुख हैं-अनुयोगद्वारसूत्र (स. १३८) तिलोयपण्णत्ति (प्रथम अधिकार, इस का विवेचन जंबूदीवपण्णतीसंग्रह की प्रस्तावना में उपलब्ध है) तथा गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) की हिन्दी भूमिका। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy