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________________ प्रमाप्रमेयम् [१.१०८वितण्डापि वादवितण्डातो न भिद्यते । ततो वादो जल्प इत्यनर्थान्तरम् । तद्वितण्डेऽपि तथा । तत एव कथाया वीतरागविजिगीषुविषयविभागो नास्त्येव । तथा च प्रयोगः। कथा वीतरागविजिगीषुविषयविभागरहिता प्रमाणवाक्यसाधनोपालम्भत्वात् प्रसिद्धविचारवत् । अयमसिद्धो हेतुरिति चेन्न । वीतो विचारः प्रमाणवाक्यसाधनोपालम्भः सत्साधनदूषणोपेतत्वात् वस्तुविषयत्वाच्च प्रसिद्धविचारवदिति तसिद्धेः। तथा जल्यो वीतरागकथा सिद्धान्ताविरुद्धार्थविषयत्वात् पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् निग्रहस्थानवत्त्वाच्च वादवत् । अपि च वादो विजिगीषुकथा पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात् निग्रहस्थानवत्वात् सिद्धान्ताविरुद्धार्थविषयत्वात् जल्पवत् । अथ वितण्डासे भिन्न नही है। अतः वाद और जल्पमें कोई अन्तर नही है तथा उन की वितण्डाओं में भी अन्तर नही है। इसीलिए वीतराग कथा तथा विजिगीषु कथा इस प्रकार कथा के विषयों का विभाजनही ठीक नही है। इसी को अनुमान प्रयोग के रूप में बतलाते हैं । सर्वत्र प्रसिद्ध विचारविमर्श के समान कथा में भी प्रमाण वाक्य ही साधन और दूषण होते हैं अतः कथा में वीतराग कथा तथा विजिगीषु कथा इस प्रकार विषयों का विभाजन नही हो सकता यह हेतु (प्रमाणवाक्य ही साधन और दूषण होना ) असिद्ध है यह कथन ठीक नहीं क्यों कि उक्त विचार ( कथा ) प्रसिद्ध विचारविमर्श के समान ही उचित साधनों और उचित दूषणों से युक्त होता है तथा वह वस्तु के विषय में होता है अतः उस में साधन और दूषण प्रमाणवाक्य ही हो सकते हैं इस प्रकार उक्त हेतु सिद्ध होता है । इसी प्रकार (दूसरा अनुमानप्रयोग हो सकता है - ) जल्प भी वाद के समान वीतराग कथा है क्यों कि वह सिद्धान्त से अविरोधी वस्तु के विषय में होता है, पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार करके किया जाता है तथा निग्रहस्थानों से युक्त होता है । इसी प्रकार वाद भी जल्प के समान विजिगीषु कथा है क्यों कि वह पक्ष और प्रतिपक्ष स्वीकार कर के किया जाता है, निग्रहस्थानों से युक्त होता है तथा सिद्धान्त से अविरोधी वस्तु के विषय में होता है । वाद निग्रहस्थानों से युक्त होता है यह कथन असिद्ध है यह कहना ठीक नही क्यों कि वाद भी जल्प के समान विचार की समाप्ति तक किया जाता है अतः वह निग्रहस्थानों से युक्त होता ही है । वाद और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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