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________________ - १.१०५] कथा के तीन प्रकार क्षणार्थिभिः प्रतिवादिस्खलनमात्रपर्यन्तं क्रियमाणत्वाच्च । इति कश्चिद्पश्चिमो विपश्चित् कथाचतुष्टयम् अचीकथत् ॥ [१०५. कथात्रितयम् ] तथा प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपत्रः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः ( न्यायसूत्र १-२-१) छलजातिनिग्रहस्थान साधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो जल्पः । जल्प एव प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा । तत्त्वज्ञानार्थ वादः । तत्त्वज्ञानसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्डिकशाखावरणवत् । तथा हि । जल्पवितण्डे विजिगीषुविषये तत्त्वज्ञानसंरक्षणार्थ की जाती हैं। इस प्रकार किसी श्रेष्ठ विद्वान ने कथा के चार प्रकारों का वर्णन किया है। कथा के तीन प्रकार जिस में प्रमाण और तर्क के द्वारा साधन और दूषण उपस्थित किये जाते हैं, जो सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं होता, पांच अवययों से संपन्न होता है तथा पक्ष और प्रतिपक्ष को स्वीकार कर के किया जाता है उसे वाद कहते हैं। जिस में छल, जाति, तथा निग्रहस्थानों द्वारा भी साधन और दूषण दिये जाते हैं, जो सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं होता, पांच अवयवों से संपन्न होता है, तथा पक्ष और प्रतिपक्ष को स्वीकार करके किया जाता है उसे जल्प कहते हैं। जल्प में ही यदि प्रतिपक्ष की स्थापना न की जाय तो उसे वितण्डा कहते हैं । वाद तत्त्व के ज्ञान के लिए होता है । जिस प्रकार बीज से निकले हुए अंकुर के रक्षण के लिए काँटोभरी बाड लगाई जाती है उसी तरह तत्त्वज्ञान के संरक्षण के लिए जल्प और वितण्डा होते हैं। जल्प और वितण्डा विजय की इच्छा से किये जाते हैं, क्यों कि वे तत्त्वज्ञान के संरक्षण के लिए होते हैं, चार अंगों से (वादी, प्रतिवादी, सभापति तथा सभासदों से) संपन्न होते हैं, लाभ, सत्कार तथा कीर्ति के इच्छुक लोगों द्वारा किये जाते हैं, मत्सरी वादियों द्वारा किये जाते हैं, प्रतिवादी की गलती होते ही समाप्त किये जाते हैं, छल इत्यादि से सहित होते हैं, इस सब के उदाहरण के रूप में श्रीहर्ष की कथा ( जल्प और वितण्डा) समझनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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