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________________ ९२ प्रमाप्रमेयम् [१.१०४ वादः प्रतिपक्षस्थापनाहीनो यदि तद वादवितण्डा। जल्पोऽपि विपक्षस्थापनाहीनत् जल्पवितण्डा स्यादिति न्यायमार्गेषु सद्बुधैः उद्योतकरादिभिः चतस्रः कथाः परिकीर्तिताः । तत्र वीतरागकथे वादवितण्डे निर्णयान्ततः । विजिगीषुकथे जल्पवितण्डे तदभावतः ॥ १०१ ॥ वादवादवितण्डे वीतरागकथे भवतः । गुरुशिष्यैः विशिष्टविद्वद्भिर्वा श्रेयोऽर्थिभिः तत्त्वबुभुत्सुभिः अमत्सरैरन्यतरपक्षनिर्णयपर्यन्तं क्रियमाणत्वात् । जपजल्पवितण्डे विचिगीषुकथे स्याताम् । वादिप्रतिवादिसभापतिप्राश्निकाङ्गत्वात् । लाभपूजाख्यातिकामैः समत्सरैः तत्त्वज्ञानसंर वितण्डाओं का वर्णन करते हैं । जिस वाद और जल्प में प्रतिपक्ष की स्थापना नहीं की जाती उन्हें अच्छे विद्वान न्याय - मार्ग के शास्त्रों में वितण्डा कहते हैं । अर्थात् - बाद में यदि प्रतिपक्ष की स्थापना न हो तो वह वादवितण्डा होती है तथा जल्प में प्रतिपक्ष की स्थापना न हो तो वह जल्पवितण्डा होती है ऐसा न्याय के मार्ग में अच्छे विद्वानों ने - उद्योतकर आदि ने कहा है, इस प्रकार कथा के चार प्रकार होते हैं (वाद, वादवितण्डा, जल्प तथा जल्पवितण्डा ) । इन में वाद तथा वादवितण्डा ( तत्त्व के ) निर्णय होने तक की जाती हैं अतः ये वीतराग कथाएं हैं तथा जल्प और जल्पवितण्डामें उस का अभाव है ( तत्त्व का निर्णय मुख्य न हो कर वादी का जय अथवा पराजय मुख्य है, वादी का जय होते ही वह समाप्त होती है ) अतः ये कथाएं विजिगीषु कथाएं हैं । वाद तथा वादवितण्डा ये वीतराग कथाएं हैं क्यों कि ये गुरुशिष्यों में अथवा उन विशिष्ट विद्वानों में के इच्छुक, तत्त्व जानने के लिए उत्सुक तथा मत्सर से दूर होते हैं, ये कथाएं एक पक्ष के निर्णय होने तक की जाती हैं ( इन में किसी की हार या जीत का प्रश्न नहीं होता, कौनसा तत्त्व सत्य है यह निर्णय होता है ) | जल्प और जल्पवितण्डा ये विजिगीषु कथाएं हैं, इन में वादी, प्रतिवादी, सभापति तथा प्राश्निक (परीक्षक सभासद ) ये चारों अंग होते हैं, लाभ, आदर तथा कीर्ति की इच्छा रखनेवाले मत्सरी वादी ( अपने पक्ष के ) तत्त्ववर्णन के रक्षण के लिए ये कथाएं करते हैं तथा प्रतिवादी के पराजय तक ही ये कथाएँ होती हैं जो कल्याण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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