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प्रातिभावाद
तात्त्विकवादे जयपराजयव्यवस्था कथ्यते ।
वादिना साधने प्रोक्त दोषमुद्भाव्य साधनम्। स्वपक्षे प्रतिवादी चेत् ब्रूते वादी निगृह्यते ॥ ७४ ।। तद्हेतौ दोषमुद्भाव्य स्वपक्षे साधनं पुनः। वक्तुं नेशः प्रवादी स्यात् यदा साम्यं तयोर्भवेत् ॥७५ ॥ वाद्युक्ते साधने दोषो नेक्ष्यतेऽसत् प्रयुज्यते । परेण वादिनोद्धारे प्रतिवादी निगृह्यते ॥ ७६॥
तदुद्धरणसामर्थ्याभावे साम्यं तयोर्भवेत् ॥ [९६. प्रातिभवादः] प्रातिभ उच्यते।
स्यात् पद्यगद्यभाषाणां मिश्रामिश्रादिभेदतः। नियतेश्चाक्षरादीनां प्रातिभोऽनेकवर्त्मनः ॥ ७ ॥
लिए कारण नहीं हो सकते । अब तात्त्विक वाद में जय और पराजय की व्यवस्था बतलाते हैं । वादी द्वारा (अपने पक्ष की सिद्धि के लिए) हेतु बताये जाने पर प्रतिवादी उस में दोष बता कर अपने पक्ष में हेतु बतलाये तो वादी पराजित होता है । यदि वादी द्वारा बताये गये हेतु में दोष बताने के बाद प्रतिवादी अपने पक्ष में हेतु न बता सके तो दोनों में समानता होती है । वादी द्वारा बताये गये हेतु में दोष न दिखाई दे और प्रतिवादी झूठा दूषण बताये तथा वादी उस झूठे दूषण का उत्तर दे दे तो प्रतिवादी पराजित होता है। यदि वादी उस झूठे दूषण का उत्तर न दे सके तो उन दोनों में समानता होती है। प्रातिभ वाद __अब प्रातिभ वाद का वर्णन करते हैं । पद्य, गद्य, भाषा, मिश्र,अमिश्र, अक्षर आदि के नियमों से अनेक प्रकार का प्रातिभ वाद होता है । वचनों की विशिष्ट रचना यह इस का स्वरूप है और यह वक्ता के अभ्यास से संभव होता है । अतः तत्त्व का निर्णय करनेवालों के लिए उस की कुछभी उपयोगिता नही है । (वस्तुतः इसे वाद न कह कर काव्यप्रतिभा की स्पर्धा कहना चाहिए; एक या दो ही अक्षरों का प्रयोग कर श्लोक लिखना, रूक्ष
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