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________________ ८४ प्रमाप्रमेयम् [१.९५प्रतिवादिलक्षणमुच्यते । क्षमी स्वपरपक्षशः कविताप्रत्तिपत्तिमान् । अनूद्य दूषको वादे प्रतिवादी प्रशस्तवाक् ।। ७० ॥ इति चतुरङ्गानि ॥ [९५. चतुर्विधे वादे तात्विकवादः] इदानीं चातुर्विध्यमुच्यते। तात्त्विकः प्रातिभश्चैव नियतार्थः परार्थनः । यथाशास्त्रं प्रवृत्तोऽयं विवादः स्याच्चतुर्विधः ॥ ७१ ॥ तत्र तात्त्विक उच्यते। यत्रैता न प्रयुज्यन्ते निष्फलाश्छलजातयः। उक्ता अपि न दोषाय स वादस्ताविको भवेत् ॥ ७२ ॥ यावन्तो दूषणाभासास्ते शास्त्रे छलजातयः । ते चात्मपरतत्त्वस्य सिद्धयसिद्धयोरहेतवः ॥ ७३ । वृत्तान्त को जाननेवाला, कविता को समझनेवाला, सहनशील,, बोलने में निपुण, प्रश्न किये जाने पर उत्तर देनेवाला तथा किसी पक्ष का जिसने स्वीकार किया है वह वादी होता है । अब प्रतिवादी का लक्षण कहते हैं - सहनशील, अपने तथा दूसरे (प्रतिपक्षी) के पक्ष को जाननेवाला, कविता को समझनेवाला, प्रशंसनीय वचनों का प्रयोग करनेवाला तथा वाद में (वादी के कथन को) दुहरा कर उस में दोष बतलानेवाला प्रतिवादी होता है। इस प्रकार (वाद के) चार अंगों का वर्णन पूरा हुआ। तात्त्विक वाद ___अब (वाद के) चार प्रकारों का वर्णन करते हैं। शास्त्र के अनुसार होनेवाला यह विवाद चार प्रकार का होता है - तात्त्विक, प्रातिभ, नियतार्थ तथा परार्थन । उन में तात्त्विक वाद का वर्णन इस प्रकार है । जिस में छल, जाति इत्यादि निष्फल बातों का प्रयोग नहीं किया जाता तथा करने पर भी जहां वे (प्रतिपक्षी के लिए) दोष के कारण नहीं होते उस वाद को तात्त्विक वाद कहते हैं | शास्त्र में जितने झूठे दूषण हैं वे छल, जाति आदि अपने तत्त्व को सिद्ध करने को लिए या प्रतिपक्षी के तत्त्व को असिद्ध बतलाने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001853
Book TitlePramapramey
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1966
Total Pages184
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, & Philosophy
File Size10 MB
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