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२ सूक्त-मुक्तावली-यह इसी नामके संस्कृत ग्रन्थका जिसे 'सिन्दूर प्रकर' भी कहते हैं पद्यानुवाद है। मूल ग्रन्थके कर्ता सोमप्रभ हैं, जो श्वेताम्बर थे। बनारसीदासने अभिन्न मित्र कुँवरपालके साथ मिलकर इसे बनाया है । इसके ४४ वें पद्य तकके २१ पद्योंमें तो 'बनारसीदास' नाम दिया है और उनके बाद ५९,६४, ६७, ७८, ८० और ८२ नम्बर ६ पद्योंमें कौंरा या कँवरपालका। यह एक तरहका सुभाषित है और सबके लिए उपयोगी है।
३शान-बावनी-यह पीताम्बर नामक किसी सुकविकी रचना है और बनारसीविलासमें इसलिए संग्रह कर ली गई है कि इसमें बनारसीदासका गुण-कीर्तन किया गया है । यह स्वयं बनारसीकी रची हुई नहीं है।
४ वेदनिर्णयपंचासिका-इसमें चार अनुयोगोंको-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगको चार वेद बतलाया है और उनके कर्ता ऋषभदेवको 'आदिब्रह्मा' कहकर जुगलधर्म और कुलकरों आदिका वर्णन दि० स० के अनुसार किया है । ५१ दोहा, चौपई, कवित्त आदि छन्द हैं ।
५शलाका पुरुषोंकी नामावली-दोहा, सोरठा, वस्तु छन्दोंमें शलाकापुरुषोंके नाम दिये हैं । 'प्रभु मल्लिनाथ त्रिभुवनतिलक' पदसे मालूम होता है कि रचयिता मल्लिनाथ तीर्थंकरको स्त्री नहीं मानते।
६ मार्गणाविधान - इसमें १४ मार्गगा और उनके ६२ भेदोंका चौपाई छन्दमें वर्णन है।
७ कर्मप्रकृतिविधान-१७५ पद्योंका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ मालूम होता है। * यह गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे लिया गया है और इसमें आठों कर्मोंकी प्रकृतियोंका स्वरूप बहुत सुगम पद्धतिमे रामझाया है । यह कविकी अन्तिम रचना संवत् १७०० के फागुन मासकी है ।
१-ये अजितदेवके प्रशिष्य और विजयसनके शिष्य थे । अजितदेवको 'जैन-बस-सर-हंस दिगम्बर ' विशेषण अनुवादकोंने अपनी तरफसे जोड़ दिया है। २-कुँवरपाल बानारसी, मित्त जुगल इकचित्त ।
'तिन गिरंथ भाषा कियौ. बहबिध छंद कवित्त ॥
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