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४८ वैद्य आदि भेद ४९ निमित्त उपादानके दोहे ५० मल्हार ( सोरठ राग)
अध्यात्मपदपंक्तिमें २१ पद हैं। उनमें भैरव, रामकली, बिलावल तो पद हैं, पर १७ वाँ 'आलाप' है जो दोहोंमें है। विषयमूचनिकामें भैरव आदि नाम तो हैं, पर 'आलाप' नहीं है । सो उसे पदपंक्तिसे अलग गिनना चाहिए । इन सब रचनाओंके नाम अर्ध-कथानकमें नहीं दिये, पर यदि हम नीचे लिखी पंक्तियोंके 'और' 'अनेक', और 'बहुत' के भीतर इन सबको समझ लें, तो इनका रचनाकाल १६८० से १६९२ तक मान लेना अनुचित न होगा
तब फिर और कबीसुरी, भई अध्यातममांहि । ४३६ अरु इस बीच कबीसुरी, कीनी बहुरि अनेक । ६२५
अष्टक गीत बहुत किए, कहाँ कहांलौं सोइ ॥ ६२८ १ जिनसहस्रनाम - विष्णुसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम आदिके समान जिनसेन, हेमचन्द्र, आशाधर आदिके बनाये हुए अनेक जिनसहस्रनाम हैं, पर वे सब संस्कृतमें हैं। इनका नित्य पाठ करनेकी पद्धति है। यदि यह भाषामें हो, तो पाठ करनेवालोंको ज्यादा लाभ हो, असंस्कृतज्ञ भी जिन-गुणोंका स्मरण सुगमतासे कर सकें, इस खयालसे यह रचा गया है । भाषामें यह शायद उनका सबसे पहला प्रयास है। इसमें भाषा, प्राकृत और संस्कृत तीनों प्रकारके शब्द हैं और कहा है कि एकार्थवाची शब्दोंकी द्विरुक्ति हो, तो दोष न समझना चाहिए । इसमें दशशतक हैं और दोहा, चौपई, पद्धड़ी आदि सब मिलाकर १०३ छन्द हैं । १–केवल पदमहिमा कहौं, करौं सिद्ध गुनगान ।
भाषा संस्कृत प्राकृत, त्रिबिध शब्द परमान ॥ २ एकारथवाची सबद, अरु द्विरुक्ति जो होइ। नाम कथनके कवितमैं, दोष न लागै कोइ ॥ ३
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