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मध्यदेसकी बोली बोलि,
गरभित बात कहाँ हिय खोलि । 'बोली' का मतलब उस समयकी बोलचालकी भाषा है, साहित्यिक भाषा नहीं। बनारसीदास उच्च श्रेणीके कवि थे, उनकी अन्य रचनाएँ प्रायः साहित्यिक भाषामें ही हैं, परन्तु उन्होंने इस आत्म-कथाको बिना आडम्बरकी सीधी सादी भाषामें लिखा है जिसे सर्वसाधारण सुगमतासे समझ सकें। यद्यपि इस रचनामें भी उनकी स्वाभाविक कवित्वशक्तिका परिचय मिलता है परन्तु वह अनायास ही प्रकट हो गई है, उसके लिए प्रयत्न नहीं किया गया। इस रचनासे हमें इस बातका आभास मिलता है कि उस समय बोलचालकी भाषा किस ढंगकी थी और जिसे आजकल खड़ी बोली कहा जाता है उसका प्रारंभिक रूप क्या था। - डॉ० माताप्रसाद गुसने लिखा है कि " यद्यपि मध्य देशकी सीमाएँ बदलती रही हैं पर प्रायः सदैव ही खड़ी बोली और ब्रजभाषी. प्रान्तोंको मध्यदेशके अन्तर्गत माना जाता रहा है, और प्रकट है कि अर्ध-कथाकी भाषामें ब्रजभाषाके साथ खड़ी बोलीका किंचित् सम्मिश्रण है, इसलिए लेखकका भाषाविषयक कथन सर्वथा संगत जान पड़ता है। यहीं तक नहीं, कदाचित् इसमें हमें उस जनभाषाका प्रयोग मिलता है, जो उस समय आगरेमें व्यवहृत होती थी। आगरा दिल्लीके साथ ही उस समय मुगल शासकोंकी राजधानी थी, इसलिए उस स्थानकी बोलीमें इस प्रकारका संमिश्रण स्वाभाविक था। उस समयकी साहित्यकी भाषाओंके नमूने भरे पड़े हैं किन्तु सामान्य व्यवहारकी . भाषाओंके नमूने कम मिलगे।...केवल कविताकी दृष्टिसे भी अर्ध-कथाका स्थान ऊँचा है । साहित्यिक परम्पराओंसे मुक्त, प्रयासरहित शैली में घटनाओंके सजीव और यथातथ्य वर्णनका जहाँ तक सम्बन्ध है, इतनी सुन्दर रचना हमारे प्राचीन हिन्दी साहित्यमें कम मिलेगी।"
पाठक इसे थोड़े ही परिश्रमसे पढ़कर समझ जायेंगे, इसलिए इसका अर्थ अलगसे नहीं दिया गया परन्तु शब्दकोश, स्थान-परिचय, व्यक्तिपरिचय अदि परिशिष्टोंमें देकर इसे हर तरहसे सुगम कर दिया गया है, इससे पढ़ने में आनन्द तो मिलेगा ही, साथ ही सोचने समझनेकी भी बहुत-सी सामग्री मिलेगी।
१-प्रयाग विश्वविद्यालय हिन्दी परिषत् द्वारा प्रकाशित 'अर्द्ध-कथा' की भूमिका पृ० १४-१५ ।
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