________________ चन्द्रसे बहुत पहले हुए हैं। बृहत् खरतर गच्छके इन अमयधर्म उपाध्यायका स्वर्गवास 1620 के लगभग हुआ है। स्व० पूरनचन्द नाहरके लेखसंग्रह (नं० 176 और 261 ) में संवत् 1686 और 1688 की प्रतिष्ठा की हुई चरणपादुकाये हैं, जो संभवतः भानुचन्द्रके गुरु अभयधर्मकी ही हैं। __ अर्वकथानकमें अभयधर्म उपाध्यायका अपने दो शिष्यों-भानुचन्द्र और रामचन्द्र-के साथ जौनपुरमें आनेका उल्लेख है जिनमें भानुचन्द्रको विशेष चतुर कहा गया है। इन्हींके पास 1657 में बनारसीदासजीने विद्या पढ़ना शुरू किया था। इसके आगे कहींपर उनके साथ साक्षात् होनेका जिक्र नहीं है, परन्तु अपनी रचनाओंमें वे बराबर उनका उल्लेख करते रहे हैं। संवत् 1693 में नाटकसमयसारकी भाषा करनेके प्रसंगमें मी उन्होंने अपनेको 'मानके सीस' कहा है। भानुचन्द्र के सम्बन्धमें इससे अधिक और कुछ पता न लगा, उनकी या उनके गुरुकी कोई रचना भी नहीं मिली। नाममाला, बनारसीविलास और अर्घकथानकमें मी बनारसीदासजीने अपने गुरुका भक्तिपूर्वक उल्लेख किया है / पांडे राजमल्ल बनारसीदासजीने समयसार नाटकमें लिखा है पांडे राजमल्ल जिनधरमी, समयसार नाटकके मरमी / तिन गिरंथकी टीका कीनी, बालाबोध सुगम कर दीनी // 23 // इसी बालबोध टीकाका उल्लेख अर्घकथानकमें भी किया है (592-94) कि वि० सं० 1688 में अध्यात्म-चर्चाके प्रेमी अरथमल ढोर मिले और उन्होंने समयसार नाटककी राजमल्लकृत टीका दी और कहा कि तुम इसे पढ़ो, 1- खरतर अभैधरम उबझाइ, दोइ सिष्यजुत प्रकटे आइ // 173 भानचंद मुनि चतुरविशेष, रामचंद वालक गृहमेष // 174 भानचंदसौं भयौ सनेह, दिन पौसाल रहे निसि गेह // 175 भानचंदपै विद्या सिखै...... २-सोलहसै तिरानवे वर्ष, समसार नाटक धरि हर्ष // 638 भाषा कियौ भानके सीस, कवित सातसौ सत्ताईस / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org