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' बादशाहोंके इन आत्मचरितोंकी अपनी विशेषता है। तत्कालीन इतिहास प्रशंसात्मक है और बहाँ प्रशंसाकी आवश्यकता नहीं भी होती वहाँ भी लेखक अपने पासकी दुनियाकी चकाहॊधसे घबराकर ऐसा चित्र खींचते हैं जिससे चित्रित व्यक्ति अपनी असलियत खो बैठता है। पर बादशाहोंकी दूसरी बात थी। उन्हें न चकाचौंध होनेकी आवश्यकता थी न किसीसे डरनेकी, और इसीलिए उन्होंने अपने समसामयिकोंकी निर्दय होकर धज्जियाँ उड़ाई हैं और उनकी कमजोरियोंको हमारे सामने रखा है। पर उनमें भी मनुष्यसुलभ कमजोरी मिलती है । यही कारण है कि वे अपनी कमजोरियाँ छिपाते हैं । पर जहाँगीरके
आत्मचरितमें हमें उसकी कमजोरियाँ भी दीख पड़ती है जिन्हें पढ़ने पर हमें एक ऐसे मनुष्यका दर्शन होता है जिसमें भले, बुरे और एक कला-पारखीका सम्मिश्रण था। शिकार बहक जानेपर वह नरहत्या कर सकता था पर साथ ही साथ वह न्यायका भी प्रेमी था। शिकारी होते हुए भी वह पशु-पक्षियोंका प्रेमी था तथा फूलोंसे उसे विशेष प्रेम था। बाबरका हृदय बारबार मध्य एशियाके लिए छटपटाता था और भारतीय वस्तुओंके लिए उसके मनमें आदरभावकी कमी थी पर जहाँगीर वास्तवमें भारतीय था। भारतीय पुष्प पलाश, बकुल और चंपा उसके मनको लुभा लेते थे और उसके अनुसार भारतीय आमके सामने मध्य एशियाके फलोंकी कोई हस्ती न थी। • अकबरयुगीन इतिहासमें मुल्ला बदायूनीके 'मुंनखाब उत् तवारीख' का भी अपना स्थान है। इसमें इतिहास और आत्मचरितका खासा मेल है। मुल्ला थे तो धर्मों के प्रति सहनशील अकबरके नौकर, पर वे थे कट्टर मुसलमान । रह रहकर वे हिन्दुओंको कोसते हैं और ऐसी घटनाओंका वर्णन करते हैं जिनके बारेमें पढ़ कर हँसी रोके नहीं रुकती। अकबरके 'दीन इलाही 'को वे कुफ्र मानते थे। सामने कहनेकी हिम्मत तो थी नहीं, पर मौका मिलने पर वे उसकी हँसी उड़ानेमें चूकते न थे। दीन इलाही चलते ही कुछ लोग विश्वाससे और बहुत-से बादशाहकी खुशामदसे उसमें जा घुसे। बदायूनी ( मुंनखाब, भा॰ २, पृ० ४१८-४१९ लो द्वारा अनूदित) ने इस . सम्बन्धकी एक मजेदार घटनाका उल्लेख किया है। बनारसके एक मौजी मुसलमान गोसालखाँ १००४ हि० में दीन इलाहीमें शामिल हो गए। उन्होंने अपनी दाढ़ी और सिर सफाचट करवा दिए तथा अबुलफज्लकी कृपासे बादशाहकी
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