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एक असफल व्यापारीकी आत्मकथा
जब प्रेमीजी द्वारा संपादित अर्ध-कथानकका पहला संस्करण पढ़नेका अवसर मिला तो मैं उस ग्रंथसे अतीव प्रभावित हुआ । उसका कारण यह था कि बनारसीदासने साहित्यके उस अंगको जिसे हम आत्मकथा कहते हैं और जिसक प्रयोग सारे प्राचीन भारतीय साहित्यमें बहुत सीमित रूपसे हुआ है केवल अपनाय ही नहीं उसे एक बहुत निखरा हुआ रूप दिया। प्राचीन भारतीय साहित्यका उद्देश्य स्वार्थ न होकर परमाथें था जिसमें भिन्न भिन्न जनोंकी अनुभूतियाँ मिल कर अनुश्रुतिका रूप ग्रहण कर लेती थीं और यही अनुश्रुतियाँ एकीभूत होकर भारतीय जीवन और संस्कृतिका वह रूप निमोण करती थीं जिसके बाहर निकल कर स्वानुभवसे विचार करना और नवीन दिझाकी ओर संकेत देना कुछ दुस्तर हो जाता था.। इसके यह माने नहीं होते कि भारतीय संस्कृतिमें नवीन विचारधाराओंकी कमी थी । समयान्तरमें अनेक विचारधाराएँ इस देशमें प्रस्फुटित हुई पर वे सब अनेक विवादोंके होते हुए भी भारतीय संस्कृतिकी बृहद् अनुश्रुतिका एक अंग बनकर रह गई। प्राचीनताके प्रति भारतीय जनका इतना बड़ा सम्मोह देखकर ही कालिदासने 'पुराणमेतन्न हि साधु सर्वम् ' का उपदेश किया तथा प्रसिद्ध जैन तार्किक सिद्धसेन दिवाकरने स्वतन्त्र रूपसे उस बातकी पुष्टि की, पर फल कुछ विशेष न निकला।
समष्टि और समवेतको लेकर साहित्य निर्माण करनेकी भारतीय भावनाका फाल यह हुआ कि जीवनकी अनेक अनुभूतियाँ जिन्हें लेखक अपने ढंगसे व्यक्त कर सकते थे समष्टिमें मिल गई और अनेक अनुभवों के आधार साहित्यका और विशेष कर कथा-साहित्यका एक रूढ़िगत रूप खड़ा होता गया जिसके निर्माणमें एकका हाथ न होकर बहुतोंका हाथ दीख पड़ता है। पर भारतीय तत्त्वचिन्तनका उद्देश्य परलोकप्राप्ति था तथा जीवनसंबंधी दूसरे विषय जैसे इतिहास, सामाजिक व्यवस्था, व्यापार, खेल, कुतूहल इत्यादि गौण ही रह गए । भारतीय कथासाहित्यका अवलोकन करनेसे इस बातका पता चलता है कि उसमें जीवन, समाज, लौकिक धर्म, व्यापार इत्यादि संबंधी ऐसी सामग्री मिलती है जिसका इकट्ठा करना एकका काम न
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