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कविता और यौगिक चमत्कारोंसे मुग्ध हो गये थे। तब ही उतनी श्लाघा मुक्त कंठसे उन्होंने की थी। परन्तु वैसे ही त्यागी और मेधावी बनारसीदासजी भी तो थे ! उनके गुणोंसे सुन्दरदासजी प्रभावित हो गये, तब ही वैसी अच्छी प्रशंसा उन्होंने भी की थी। .. . नाटकसमयसारम जो 'कीच सौ कनक जाके' पंद्य है, उसे बनारसीदासजीने मुनदरदासजीको भेजा था और सुन्दरदासजीने उसके उत्तरमें दो छन्द मेजे थे 'धूल जैसो धन जाके' और ' कामहीन क्रोध जाके' तथा १ . कीचसौ कनक जाकै नीचसौ नरेसपद,
मीचसी मिताई गरुवाई जाकै गारसी। जहरसी जोगजाति कहरसी करामाति,
__ हहरसी हौस पुदगलछबि छारसी ॥ जालसौ जगविलास भालसौ भवनवास,
कालसौ कुटंबकाज लोकलाज लारसी। सीठसौ सुजसु जानै बीठसौ बखत माने.
ऐसी जाकी रीति ताहि बन्दत बनारसी ||-बन्धद्वार १९ २ धूलि जैसौ धन जाकै सूलिसौ संसार सुख,
भूलि जैसौ भाग देखै अंतकीसी यारी है। पास जैसी प्रभुताई साँप जैसौ सनमान,
बड़ाई ह बीछनीसी नागिनीसी नारी है। अमि जैसो इन्द्रलोक चिन जैसौ बिधिलोक,
कीरति कलक जैसी सिद्धि सीटि डारी है । बासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,
मुन्दर कहत ताहि बन्दना हमारी है ।। १५ ३-कामहीन क्रोध जाकै लोमहीन मोह ताके,
मदहीन मच्छर न कोउ न विकारौ है । दुखहीन सुख मानै पापहीन पुन्य जाने,
___ हरख न सोक आने देहहीतै न्यारौ है ।। निंदा न प्रसंसा करै रागहीन दोष धरै,
लैंनहीन न जाकै कछु न पसारौ है । मुन्दर कहत साकी अगम अगाध गति, ऐसौ कोऊ साध सु तौ रामजीको प्यारो है ॥
- साधुको अंग पृ. ४९४
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