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________________ 76 के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः विवाद ही नहीं है, यदि विवाद है तो उसका सम्बन्ध श्रात्मा के विशेष स्वरूप से है । अर्थात् कोई शरीर को ही आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को और कोई संघात को श्रात्मा समझता है । कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन सबसे पृथक स्वतन्त्र ग्रात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । जब तक मनुष्य में विचार-शक्ति का समुचित विकास नहीं होता, वह बाह्य-दृष्टि बना वह बाह्य इन्द्रियों यही कारण है कि, सीमित रहती है, उत्सुक रहता है । रहता है और जब तक उसकी दृष्टि बाह्य विषयों तक द्वारा ग्राह्य तत्वों को ही मौलिक तत्त्व मानने के लिए हमें उपनिषदों में ऐसे अनेक विचारक दृष्टिगोचर होते हैं, जिनके मत में जल अथवा वायु जैसे इन्द्रिय-ग्राह्य भूत विश्व के मूलरूप तत्त्व हैं । उन्होंने ग्रात्मा जैसे किसी पदार्थ को मूल तत्वों में स्थान प्रदान नहीं क्रिया, किन्तु इन भौतिक मूल तत्त्वों से ही आत्मा अथवा चैतन्य जैसी वस्तु की सृष्टि को स्वीकृत किया है । इस बात की विशेष सम्भावना है कि, जब बाह्य दृष्टि का त्याग कर मनुष्य ने विचार-क्षेत्र में पदार्पण किया, तब इन्द्रिय-ग्राह्य तत्त्वों को मौलिक तत्त्व न मान कर उसने असत् है, सत् प्रथवा श्राकाश मान्य किया हो जो बुद्धि-ग्राह्य होने पर भी बाह्य थे; प्रकार के प्रतीन्द्रिय तत्त्वों से ही ग्रात्मा की उपपत्ति की हो । जैसे तत्त्वों को मौलिक तत्त्व के रूप में और यह भी सम्भव है कि, उसने इस जब विचारक की दृष्टि बाह्य तत्वों से हट कर आत्माभिमुख हुई - प्रर्थात् जब वह विश्व के मूल को बाहर न देख कर अपने अन्तर ही ढूंढने लगा तब उसने प्राण तत्त्व को मौलिक मानना शुरू किया? । इस प्राण तत्त्व के विचार से ही वह ब्रह्म अथवा ग्रात्माद्वैत तक पहुँच गया । आत्मा के लिए प्रयुक्त होने वाले विविध नामों से भी प्रात्म- विचारणा की उत्क्रान्ति के उपर्युक्त इतिहास का समर्थन होता है । आचारांग सूत्र में जीव के लिए भूत, सत्व, प्राण जैसे शब्दों का प्रयोग ग्रात्म विचारणा की उत्क्रान्ति का सूचक है । हमारे पास ऐसे साधन नहीं हैं जिनसे यह ज्ञात हो सके कि इस उत्क्रान्ति में कितना समय लगा होगा ? कारण यह है कि, उपनिषदों में जिन विविध मतों का उल्लेख है, वे उसी काल में प्रविभूत हुए, ऐसा कथन शक्य नहीं है । हाँ, हम यह मान सकते हैं कि, इन मतों की परम्परा दीर्घकाल से चली आ रही थी और उपनिषदों में उसका संग्रह कर दिया गया । 1. न्यायवार्तिक पृष्ठ 366 बृहदारण्यक 5.5.1 छान्दोग्य 4.3 छान्दोग्य 3.19.1, तैत्तिरीय 2.7 छान्दोग्य 6.2 गणधरवाद 2. 3. 4. 5. 6. छान्दोग्य 1.9.1; 7.12 7. छान्दोग्य 1.11.5; 4.3.3, 3.15.4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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