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प्रस्तावना
उपनिषदों के आधार पर हमने यह देखा कि प्राचीन काल के अनात्मवादी जगत् के मूल में केवल किसी एक तत्त्व को ही मानते थे । हम उन्हें अद्वैतवाद की श्रेणी में रख सकते हैं और उनकी मान्यता को 'अनात्माद्वैत' का सार्थक नाम भी दे सकते हैं; क्योंकि उनके मतानुसार श्रात्मा को छोड़कर अन्य कोई एक ही पदार्थ विश्व के मूल में विद्यमान है । यह कहा जा चुका है कि, अनात्माद्वैत की इस परम्परा से ही क्रमशः आत्माद्वैल की मान्यता का विकास हुआ
प्राचीन जैन आगम, पालि त्रिपिटक और सांख्यदर्शन आदि इस बात के साक्षी हैं कि दार्शनिक विचार की इस अद्वैत-धारा के समानान्तर द्वैत-धारा भी प्रवाहित थी । जैन, बौद्ध और सांख्य दर्शन के मत में विश्व के मूल में केवल एक चेतन अथवा प्रचेतन तत्त्व नहीं अपितु चेतन एवं अचेतन ऐसे दो तत्त्व हैं, यह बात इन दर्शनों ने स्वीकृत की है । जैनों ने उन्हें जीव और अजीव का नाम दिया, सांख्यों ने पुरुष और प्रकृति कहा तथा बौद्धों ने उसे नाम और रूप कहा ।
उक्त द्वैत विचार धारा में चेतन और उसका विरोधी अचेतन, इस प्रकार दो तत्त्व माने गए, इसीलिए उसे 'द्वैत - परम्परा' का नाम दिया गया है, किन्तु वस्तुतः सांख्यों और जैनों के मत में व्यक्ति-भेद से चेतन अनेक हैं, वे सब प्रकृति के समान मूलरूप में एक तत्त्व नहीं हैं । जैनों की मान्यतानुसार केवल चेतन ही नहीं, प्रत्युत प्रचेतन तत्त्व भी अनेक हैं । जड़ और चेतन इन दो तत्त्वों को स्वीकृत करने के कारण न्याय दर्शन तथा वंशेषिक दर्शन भी द्वैत विचारधारा के अन्तर्गत गिने जा सकते हैं; किन्तु उनके मत में भी चेतन एवं अचेतन ये दोनों सांख्यसम्मत प्रकृति के समान एक मौलिक तत्त्व नहीं; परन्तु जैनों द्वारा मान्य चेतन-अचेतन के समान अनेक तत्त्व हैं। ऐसी वस्तुस्थिति में इस समस्त परम्परा को बहुवादी अथवा नानावादी कहना चाहिए । यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि बहुवादी विचारधारा में पूर्वोक्त सभी दर्शन आत्मवादी हैं; किन्तु जैन आगम और पालि त्रिपिटक इस बात की भी साक्षी प्रदान करते हैं कि इस बहुवादी विचार धारा में अनात्मवादी भी हुए हैं । उनमें ऐसे भूतवादियों का वर्णन उपलब्ध होता है जो विश्व के मूल में चार या पाँच भूतों को मानते थे । उनके मत में चार या पाँच भूतों से ही आत्मा की उत्पत्ति होती है, आत्मा जैसा कोई स्वतन्त्र मौलिक पदार्थ नहीं है । दार्शनिक-सूत्रों के टीका-ग्रन्थों के समय में जहाँ चार्वाक, नास्तिक, बार्हस्पत्य अथवा लोकायत मत का खण्डन किया गया है, वहाँ पर भी चार भूत अथवा पाँच भूत वाद का ही खण्डन है । अतः हम यह कह सकते हैं कि दार्शनिक सूत्रों की व्यवस्था के समय में उपनिषदों के प्राचीन स्तर के अद्वैती अनात्मवादी नहीं थे, मगर उनका स्थान नाना भूतवादियों ने ले लिया था । ये नाना भूतवादी विश्वास रखते थे कि, चार अथवा पाँच भूतों के एक विशिष्ट समुदाय सम्मिश्रण होने पर आत्मा अर्थात् चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है । प्रात्मा के समान अनादि, अनन्त किसी शाश्वत वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि इस भूत-समुदाय का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है ।
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सूत्रकृतांग 1.1.1.7-8; 2.1.10; ब्रह्मजाल सूत्र
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