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गणधरवाद
इस प्रकार इन दोनों धाराओं के विषय में विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि अद्वैतमार्ग में किसी समय अनात्मा की मान्यता मुख्य थी और धीरे-धीरे अात्माद्वैत की मान्यता ने दृढ़ता प्राप्त की। दूसरी पोर नानावादियों में भी चार्वाक जैसे दार्शनिक हुए हैं जिनके मत में प्रात्म-सदृश वस्तु का मौलिक-तत्त्वों में स्थान नहीं था, जब कि उनके विरोधी जैन, बौद्ध, सांख्य इत्यादि आत्मा एवं अनात्मा दोनों को मौलिक-तत्वों में स्थान प्रदान करते थे ।
2. आत्मा का स्वरूप-चैतन्य ऋग्वेद के एक ऋषि के उद्गार से प्रतीत होता है कि उसके हृदय में आत्मा के स्वरूप के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, किन्तु उसकी इस जिज्ञासा में उत्कट वेदना का अनुभव स्पष्ट मालूम होता है । वह ऋषि पुकार कर कहता है-'यह मैं कौन हूँ अथवा कैसा हूँ, मुझे इसका पता नहीं चलता' । अात्मा के सम्बन्ध में ही नहीं, प्रत्युत विश्वात्मा के स्वरूप के विषय में भी ऋग्वेद के ऋषि को संशय है । विश्व का वह मूल तत्त्व सत् है अथवा असत् है, इन दोनों में से वह उसे किसी भी नाम से कहने के लिए तैयार नहीं है । शायद उसे यह प्रतीत हुआ हो कि यह मल तत्त्व ऐसा नहीं है जिसे वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सके, ऋग्वेद (10.90) और यजुर्वेद के पुरुषसूक्त (अ. 31) के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समस्त विश्व के मूल में पुरुष की सत्ता है। इस बात का उल्लेख करने की तो आवश्यकता ही नहीं है कि यह पुरुष चेतन है । ब्राह्मण-काल में प्रजापति ने इसी पुरुष का स्थान ग्रहण किया। इस प्रजापति को सम्पूर्ण विश्व का स्रष्टा माना गया है ।
ब्राह्मण-काल तक बाह्य जगत् के मूल की खोज का प्रयत्न किया गया है और उसके मूल में पुरुष अथवा प्रजापति की कल्पना की गई है, किन्तु उपनिषदों में विचार की दिशा में परिवर्तन हो गया है। मुख्यत: प्रात्म-विचारणा ने विश्व-विचार का स्थान ग्रहण कर लिया है, अतएव आत्म-विचार की क्रमिक प्रगति के इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उपनिषद् प्राचीन साधन हैं।
उपनिषदों में दृग्गोचर होने वाली प्रात्म-स्वरूप की विचारणा का और उपनिषदों की रचना का काल एक ही है—यह बात नहीं मानी जा सकती, परन्तु उपनिषद् की रचना से से भी पूर्व दीर्घकाल से जो विचार-प्रवाह चले आ रहे थे उनका उल्लेख उपनिषदों में सम्मिलित है, यह मानना उचित है; क्योंकि उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग माने जाते हैं, इसलिए कोई व्यक्ति यह अनुमान भी कर सकता है कि केवल वैदिक-परम्परा के ऋषियों ने ही प्रात्मविचारणा की है और उसमें किसी अन्य परम्परा की देन नहीं है ।
. किन्तु उपनिषदों के पूर्व की वैदिक-विचारधारा तथा उसके बाद की मानी जाने वाली औपनिषदिक वैदिक-विचारधारा की तुलना करने वालों को दोनों में जो मुख्य भेद
1. न वा जानामि यदिव इदमस्मि । ऋग्वेद 1. 164.37 2. नाऽसदासीत् नो सदासीत् तदानीम् । ऋग्वेद 10.129 3. The Creative Period pp.-67, 342.
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