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________________ (अ) प्रात्म-विचारणा 1. अस्तित्व प्रथम गणधर इन्द्रभूति ने जीव के अस्तित्व के विषय में शंका उपस्थित की है और तृतीय गणधर वायुभूति ने 'जीव शरीर से भिन्न है अथवा नहीं' इस सम्बन्ध में सन्देह प्रस्तुत किया है । इसलिए स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि, इन दोनों शंकानों में क्या अन्तर है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें दोनों गणधरों के साथ होने वाले वाद से मिल जाता है। जब हम किसी भी विषय पर विचार करना प्रारम्भ करते हैं, तब सर्वप्रथम उसके अस्तित्व का प्रश्न विचारणीय होता है, तत्पश्चात् ही उसके स्वरूप का प्रश्न सामने अाता है। इसी नियम के अनुसार यहाँ भी ‘जीव का अस्तित्व है या नहीं' इस विषय पर मुख्य रूप से विचार किया गया है । इन्द्रभूति का कथन था कि, किसी भी प्रमाण से जीव को सिद्ध नहीं किया जा सकता, किन्तु भगवान महावीर ने बताया कि, प्रमाण द्वारा जीव की सिद्धि शक्य है। इस प्रकार जीव का अस्तित्व सिद्ध हुआ, परन्तु जीव का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर भी यह प्रश्न विद्यमान रहता है कि, उसका स्वरूप कैसा माना जाए ? शरीर को ही जीव क्यों न मान लिया जाए ? तृतीय गणधर वायुभूति ने इस विवाद का प्रारम्भ किया । तात्पर्य यह है कि, प्रथम और तृतीय गणधरों की चर्चा का विषय प्रधानतः जीव का अस्तित्व एवं उसका स्वरूप रहा है। इस विषय पर विचार करने रने से पूर्व यह प्रावश्यक है कि, हम जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों की विचारणा पर दृष्टिपात कर लें। ब्राह्मणों एवं श्रमणों की बढ़ती हुई आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण प्रात्मवाद के विरोधी लोगों का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। ब्राह्मणों ने अनात्मवादियों के सम्बन्ध में जो भी उल्लेख किए हैं. वे केवल प्रासंगिक हैं और उनके आधार पर ही वैदिक-काल से लेकर उपनिषद-काल तक की उनकी मान्यतानों के विषय में कल्पनाएँ की जा सकती हैं। उसके बाद हम जैन-प्रागम और बौद्ध-त्रिपिटकों के आधार पर यह मालूम कर सकते हैं कि, भगवान महावीर और बुद्ध के समय तक अनात्मवादियों की क्या मान्यताएँ थीं। दार्शनिक टीका-ग्रन्थों के प्रमाण से यह आ सकता है कि, दार्शनिक सूत्रों के रचना-काल में अनात्मवादियों ने अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन बृहस्पति सूत्र में किया, किन्तु दुर्भाग्यवश वह मूल-ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है । ऐसी परिस्थिति में अनात्मवादियों से सम्बन्ध रखने वाली सामग्री का अाधार मुख्यत: विरोधियों का साहित्य ही है, अतः उसका उपयोग करते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता है, क्योंकि विरोधियों द्वारा किए गए वर्णन में न्यून या अधिक मात्रा में एकाङ्गीपन की सम्भावना रहती ही है। अनात्मवादी चार्वाक यह नहीं कहते कि 'अात्मा का सर्वथा अभाव है।' किन्तु उनकी मान्यता का सार यह है कि, जगत् के मूलभूत एक या अनेक जितने भी तत्त्व हैं, उनमें प्रात्मा कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है। दूसरे शब्दों में उनके मतानुसार आत्मा मौलिक तत्त्व नहीं है। सी तथ्य को दृष्टि-सन्मुख रखते हुए न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने कहा है कि, प्रात्मा के अस्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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