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वाला श्रावक उसे शास्त्र को पढ़ता है तो वह अपनी दृष्टि के कारण उसका उपयोग संसारवृद्धि के लिए करता है, ग्रतः उसके लिए वह शास्त्र मिथ्या है ।
नियुक्तिकार ने शंका का आधार वेद-वाक्य बताए हैं, किन्तु प्राचार्य जिनभद्र तथा टीकाकारों ने जिन वाक्यों के आधार पर शंकाओं की उत्पत्ति बताई है, वे प्रायः उपनिषदों के ही हैं । भगवान् महावीर के समय में उपनिषदों का निर्माण हो गया था, अतः इन शंका-स्थानों अथवा शंका के विषयों की चर्चा उपनिषदों में है या नहीं, इस विषय पर प्रकाश डाला जायेगा । उपनिषद् वेदों के ही परिशिष्ट हैं, अतः उन्हें वेद कहना अनुचित नहीं ।
शंकन - स्थान :
गणधरों के मन में जिन विषयों के सम्बन्ध में सन्देह था, वे क्रमश: ये हैं 1. जीव का अस्तित्व 2. कर्म का अस्तित्व एक ही हैं
3. तज्जीव- तच्छरीर अर्थात् जीव और शरीर
4. भूतों का अस्तित्व
5. इस भव और पर भव का सादृश्य 7. देवों का अस्तित्व
9. पुण्य पाप का अस्तित्व
11. निर्वाण का अस्तित्व
1.
6. बन्ध - मोक्ष का अस्तित्व 8. नारकों का अस्तित्व 10. परलोक का अस्तित्व
इन 11 शंका स्थानों को यदि हम गौण-मुख्य भाव से विभाजित करें तो उनमें 1. भूतों का अस्तित्व, 2. जीव का अस्तित्व, 3. कर्म का अस्तित्व, 4 बन्ध का अस्तित्व, 5. निर्वाण का अस्तित्व और परलोक का अस्तित्व' ये छह शंका स्थान मुख्य हैं और शेष सब इनके ही अवान्तर शंका-स्थान हैं ।
गणधरवाद
उक्त छह शंका स्थानों का भी संक्षेप करना हो तो जीव, भूत और कर्म इन तीन में हो सकता है और इनका भी संक्षेप जीव तथा कर्म में हो सकता है। कारण यह है कि कर्म भौतिक भी है । तात्पर्य यह है कि जीव और कर्म के सम्बन्ध के आधार पर ही बन्ध- विश्व -प्रपंच है श्रौर उनके वियोग से ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है । बन्ध की तरतमता के आधार पर ही देव-तारक की कल्पना है, परलोक की कल्पना है, पुण्य-पाप की कल्पना है । इस भव का परभव से सादृश्य है या नहीं ? इस शंका का ग्राधार भी जीव और कर्म का सम्बन्ध ही है । संक्षेप में संसार और मोक्ष की कल्पना भी जीव और कर्म की कल्पना पर आधारित है । ग्रतः मुख्य प्रश्न यही है कि जीव और कर्म का अस्तित्व है या नहीं ? इस मुख्य प्रश्न के साथ परलोक का विचार सम्बन्धित है, अतः इस विषय प्रवेश में श्रात्मा, कर्म और परलोक इन तीन समस्यायों के अन्तर्गत समस्त चर्चा को प्रतिपादित करने की विचारणा ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से आगे की गई है ।
नन्दी सूत्र 40, 41; देखें 'जैनागम' पत्रिका पृ० 3
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