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प्रस्तावना
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था । इस शैली की यह विशेषता है कि ग्रन्थकर्ता स्वयं अपने मन्तव्य को तो उपस्थित करता ही है, किन्तु साथ ही प्रतिस्पर्धी के मन में उसके विरोध में जिन युक्तियों के दिये जाने की सम्भावना हो, उनका भी स्वयं ही प्रतिवादी की ओर से उल्लेख कर, ग्रन्थकर्ता द्वारा निराकरण कर दिया जाता है । संवाद-शैली में दोनों व्यक्ति अपने-अपने मन्तव्य को स्वयमेव उपस्थित करते हैं, किन्तु प्रस्तुत शैली में एक ही व्यक्ति वक्ता होता है, और वही अपनी और विरोधी की बात स्वयं कहता है । प्रस्तुत प्रकरण में प्राचार्य जिनभद्र ने भगवान् महावीर को मुख्य वक्ता बनाया है, अतः वही उन युक्तियों का उल्लेख करते हैं जो गणधरों के मन में उठ सकती हैं, साथ ही उनका खण्डन करते जाते हैं। ग्यारह ही गणधरों के साथ होने वाले वाद में इसी शैली को अपनाया गया है।
___ समस्त वाद की भूमिका यह है कि भगवान महावीर सर्वज्ञ थे और वे सभी के संशयों को ज्ञात कर उन सब का निवारण करने में समर्थ थे, अतः गणधरों के मुख से उनकी अपनी शंकानों को कहलवाने के स्थान पर यह अधिक संगत है कि भगवान् महावीर गणधरों के मन में स्थित शंकानों को बताकर उनका निवारण करें। इसी लिए भगवद्गीता के कृष्णार्जुन संवाद की शैली का अनुसरण करने की अपेक्षा प्रतिवादी के मन में रही हुई शंका का उल्लेख कर उसके निराकरण करने की शैली प्रस्तुत प्रकरण के अधिक अनुकूल है; अतः प्राचार्य ने संवाद को न अपना कर इसी शैली का अनुकरण किया है। इसलिए प्रत्येक वाद के प्रारम्भ में जब इन्द्रभूति आदि भगवान् के सन्मुख उपस्थित होते हैं, तब वे कुछ कहना शुरु करें, इससे पहले ही भगवान उन्हें नाम-गोत्र से सम्बोधित कर उनके मन की शंका को ही नहीं, प्रत्युत उस शंका की प्राधारभूत युक्तियों का भी कथन कर देते हैं।
यहाँ यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि प्राचार्य जिनभद्र ने प्रस्तुत गणधरवाद की रचना नियुक्ति के आधार पर की है, अतः उनके लिए नियुक्ति की शैली का अनुसरण करना उचित था। नियुक्ति की प्रस्तुत वाद की व्यवस्था को देखते हुए प्राचार्य जिनभद्र के सन्मुख संवादात्मक शैली का आश्रय लेने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सकता था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भगवान् की सर्वज्ञता को लक्ष्य में रखकर प्रत्येक वाद की आरम्भ करना अनिवार्य था, अतः प्राचार्य जिनभद्र ने नियुक्ति की मूल रूपरेखा को सन्मुख रख और अपनी ओर से केवल पूर्वोत्तर पक्ष की युक्तियाँ उपस्थित कर विविध वादों की चर्चा करना उचित समझा।
यद्यपि भगवान् की सर्वज्ञता को प्राधार बनाकर चर्चा की गई है, तथापि सम्पूर्ण चर्चा . श्रद्धा-प्रधान नहीं अपितु तर्क-प्रधान बन गई है। यह बात सहज ही विद्वानों के ध्यान में प्रा जाती है। जिज्ञासु के मन की शंकाओं का तर्क के बल से समाधान करके ही कुछ स्थलों पर अपनी सर्वज्ञता का कथन कर भगवान् महावीर उन सिद्धान्तों को स्वीकार करने का आग्रह करते हैं । इससे यह बात सिद्ध होती है कि केवल प्रागम-वाक्य को नहीं, प्रत्युत तर्क शुद्ध
1. देखें-गा. 1549-1553; 1609 इत्यादि; 1648 इत्यादि 2. गाथा 1563, 1577 इत्यादि
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