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गणधरवाद
आगम-वाक्य को प्रमाण मानना चाहिए, अतः समस्त चर्चा आगम-मलक होने पर भी तर्क द्वारा शुद्ध किये जाने के कारण प्रागमिक के स्थान में तार्किक ही हो गई है और इस प्रकार प्रागम गौण बन गये हैं। जिस प्रकार कृष्ण स्वयं भगवान् होकर भी अर्जुन को केवल श्रद्धा से नहीं परन्तु तर्क-पुरस्सर युक्तियों से युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं, उसी प्रकार भगवान् महावीर ने दलीलें देकर अपना मन्तव्य प्रकट किया है तथा गणधरों की शंकाओं का निवारण किया है । तर्क-पुरस्सर युक्तियों के अतिरिक्त जैसे गीता में भगवान कृष्ण ने अपने विराट रूप का भी साक्षात्कार करवाना उचित समझा, वैसे ही भगवान महावीर ने भी अनेक बार अपनी सर्वज्ञता का कथन किया है। गीताकार ने लिखा है कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण के विराट रूप का साक्षात्कार किया। फिर भी अाधुनिक विद्वान् जैसे इस बात को केवल श्रद्धा-प्रधान मानते हैं, उसी प्रकार अपनी सभा में उपस्थित देवों को भगवान् महावीर द्वारा कराया गया साक्षात्कार और वैसी अन्य अनेक बातें श्रद्धा-प्रधान किंवा श्रद्धागम्य अथवा प्रत्यक्ष प्रतीति से परे ही माननी चाहिए।
प्राचार्य जिनभद्र और टीकाकार हेमचन्द्र के समक्ष जो दार्शनिक ग्रन्थ थे, उन सब की शैली का प्रभाव इन दोनों लेखकों पर पड़ा है। शंका उपस्थित करते हुए दोनों पक्षों की सबलता बताना आवश्यक है, अन्यथा शंका का उत्थान ही सम्भव नहीं। प्राचीन दार्शनिक सूत्र-भाष्य ग्रन्थों में दो विरोधी पक्षों की सम-बलता का उल्लेख कर शंका उपस्थित करने की परम्परा थी। वहीं से ही प्रेरणा प्राप्त कर प्रस्तुत प्रकरण में भी गणधरों की शंकाओं को उसी प्रकार उपस्थित किया गया है । तदनन्तर जैसे सूत्रों में समाधान किया जाता था, वैसे ही यहाँ प्राचार्य जिनभद्र महावीर द्वारा शंका का समाधान करवाते हैं।
मल, भाष्य और टीका की शैली इसी प्रकार की है, किन्तु प्रस्तुत गुजराती भाषान्तर में इस शैली का रूपान्तर संवादात्मक शैली में कर दिया गया है, यह बात पहले ही कही जा चुकी है। शंका का प्राधार :
__यह पहले ही लिखा जा चुका है कि भगवान् महावीर से प्रथम परिचय के समय प्रत्येक गणधर के मन में जीवादि विषयक संशय होने की बात का सर्वप्रथम कथन हमें आवश्यक नियुक्ति में ही उपलब्ध होता है। प्रागम में तत्सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने गणधरों के मन की शंकाओं का निर्माण किया है अथवा इस विषय में उन्हें भी परम्परा से कुछ प्राप्ति हुई है, इस बात का निश्चित निर्णय करने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं हैं । आचार्य भद्रबाहु आवश्यक नियुक्ति के प्रारम्भ में यह बात स्वीकार करते हैं कि उन्हें सामायिक की नियुक्ति प्राचार्य-परम्परा से जिस प्रकार प्राप्त हुई है, उसी प्रकार वे करेंगे,
1. गाथा 1869 2. न्याय-सूत्र व भाष्य 2.2.40; 2.2.58; 3.1.19; 3.1.33; 2.2.13; 3.1.1; ब्रह्मसूत्र
शांकर-भाष्य 1.1.28 आदि । 2. प्रा. नि. गाथा 87
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