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गणधरवाद
ऐसे ही एक अन्य प्रसंग का वहाँ वर्णन है । गौतम ने अपने ऋद्धि बल से अष्टापद का आरोहण किया और वापिस लौटते हुए तापसों को दीक्षा देकर, ऋद्धिबल से अष्टापदारोहण करवाकर तथा तीर्थकरों का दर्शन करवाकर ऋद्धिबल से ही पारणा करवाया। इन सब तापसों को भी गौतम के प्रति भक्ति के अतिरेक से, उनके गणों का चिन्तन करते-करते तथा भगवान् के मात्र मुख-दर्शन से केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान् के समवसरण में गागली के समान ही घटना-घटित हुई। इससे भी गौतम को विशेष रूप से दुःख हुया कि उन्हें केवलज्ञान क्यों नहीं होता ? इस प्रसंग पर भगवान् ने गौतम को आश्वासन दिया कि धैर्य रखो, हम दोनों समान बनेंगे।
___ कथाकार की तथा प्रायः सभी प्राचार्यों की मान्यता है कि गौतम के हृदय में भगवान् के प्रति जो दृढ़-राग था, वही उनके केवलज्ञान की प्राप्ति में बाधक था। जिस क्षण वह दूर हुअा, उसी क्षण उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। यह क्षण भगवान् के निर्वाण के बाद का था । उस प्रसंग का वर्णन करते हुए प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि, उसी रात को अपना मोक्ष ज्ञात कर प्रभु ने विचार किया कि मेरे प्रति गाढ़-राग के कारण ही गौतम को केवलज्ञान नहीं होता, अतः इस राग के उच्छेद का उपाय करना चाहिए । यह सोचकर उन्होंने गौतम को एक निकटस्थ गाँव में देवशर्मा को प्रतिबोधित करने के निमित्त भेज दिया। उनके वापिस पाने से पूर्व ही भगवान् का निर्वाण हो गया। भगवान् के निर्वाण का सुनकर गौतम को पहले तो दुःख हुअा कि अन्तिम समय में भगवान् ने मुझे अपने से दूर क्यों किया, किन्तु अन्त में उन्होंने विचार किया कि मैं ही अब तक भ्राँति में ग्रस्त था । निर्मम तथा वीतराग प्रभु में मैंने राग
और ममता रखी, मेरा राग और मेरी ममता ही बाधक है, इस विचार-श्रेणी पर चढ़ते-चढ़ते उन्हें केवलज्ञान हो गया।
___ वस्तुतः उक्त सभी कथानों की उत्पत्ति भगवती सूत्र के उक्त एक ही प्रसंग के आधार पर हुई ज्ञात होती है। कारण यह है कि उसमें विशेषरूपेण यह बात कही गई है कि गौतम का भगवान् के प्रति दृढ़ अनुराग था, उन दोनों का पूर्व-जन्म में भी सम्बन्ध था और वे दोनों भविष्य में भी एक सदृश होने वाले थे ।
10. विषय प्रवेश शैली
प्राचीन उपनिषदों में अथवा भगवद्गीता में जिस प्रकार की संवादात्मक शैली दिखाई देती है, अथवा जन आगमों एवं बौद्ध त्रिपिटक में जिन विविध संवादों की रचना की गई है, उसी प्रकार के संवाद की रचना कर आचार्य जिनभद्र ने 'गणधरवाद' के प्रकरण की रचना नहीं की, परन्तु उस समय के प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थों में जिस शैली से दर्शन के विविध विषयों की चर्चा की जाती थी, उसी शैली का आश्रय प्रस्तुत 'गणधरवाद' के लिखने में लिया गया
1. त्रिषष्टि० पर्व 10, सर्ग 13 2. भगवती सूत्र 14.7
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